केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, AMU ने अपनी मर्जी से छोड़ा था अल्पसंख्यक दर्जा, जानें क्या है पूरा इतिहास

नई दिल्ली, BNM News। केंद्र सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध करते हुए कहा कि 1920 में गठन के समय AMU ने अपनी मर्जी से अल्पसंख्यक दर्जा छोड़ा था। केंद्र ने कहा कि एएमयू अगर चाहता तो अपना अल्पसंख्यक दर्जा बनाए रखता और इम्पीरियल एक्ट (ब्रिटिश संसद के कानून) के तहत शर्तें स्वीकार करके कानून के जरिये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय न बनता। केंद्र सरकार की ओर से पक्ष रखते हुए सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि बहुत से संस्थानों ने ऐसा किया था और अपना अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखा था जैसे कि दिल्ली का सेंट स्टीफन कालेज और जामिया मिल्लिया इस्लामिया है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2006 के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती

 

सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई कर रही है। एएमयू व अन्य याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2006 के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिसमें हाई कोर्ट ने शीर्ष अदालत के अजीज बाशा फैसले पर भरोसा करते हुए कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और पोस्ट ग्रेजुएट में मुस्लिम छात्रों के लिए लागू 50 प्रतिशत आरक्षण रद कर दिया था। इतना ही नहीं, हाई कोर्ट ने अजीज बाशा फैसले के बाद एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल करने के लिए एएमयू एक्ट में 1981 में किए गए संशोधन के तीन प्रविधान भी यह कहकर रद कर दिए थे कि इसमें कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी किया गया है।

1920 में ब्रिटिश काल में कानून के जरिये हुआ था AMU का गठन

 

मंगलवार को केंद्र की ओर से पक्ष रखते हुए मेहता ने कहा कि 1920 में ब्रिटिश काल में कानून के जरिये AMU का गठन हुआ था। ब्रिटिश काल में विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा ब्रिटिश संसदीय नीति के मुताबिक संचालित होती थी। जिसमें किसी भी विश्वविद्यालय के लिए शर्त होती थी कि वह गैर-सांप्रदायिक प्रकृति का होगा और उस पर सरकार का पूरा नियंत्रण होगा। मेहता ने कहा कि उस समय ब्रिटिश कालीन कानून के तहत जो विश्वविद्यालय गठित हुए थे, उन्हें इन दोनों शर्तों का पालन करना होता था। ऐसे में किसी भी संस्थान की ब्रिटिश कानून के तहत विश्वविद्यालय बनने से पहले चाहे जो प्रकृति रही हो, कानून के बाद वह प्रकृति बदल जाती है।

ब्रिटिश कानून के तहत विश्विद्यालय बनना व सरकारी मदद लेना स्वीकारा

 

1920 में AMU ने ब्रिटिश कानून के तहत विश्वविद्यालय बनना स्वीकार किया था और ये दोनों शर्तें भी स्वीकार की थीं, इसलिए 1920 के AMU कानून के मुताबिक वह अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय नहीं था। AMU ने अपनी मर्जी से अल्पसंख्यक दर्जा छोड़ा था और ब्रिटिश कानून के तहत विश्विद्यालय बनना व सरकारी मदद लेना स्वीकार किया था। मेहता ने कहा कि अगर एएमयू चाहता तो वह अल्पसंख्यक संस्थान बना रह सकता था जैसे और संस्थान थे। इस संबंध में उन्होंने देशभर के उस समय के बहुत से संस्थानों का उदाहरण और सूची पेश की। मेहता ने कहा कि उस समय एएमयू इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबंध था।

अन्य संस्थानों ने नहीं लिया ब्रिटिश एक्ट के तहत विश्वविद्यालय का दर्जा

 

वह चाहता तो अपना अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध बना रहता जैसे सेंट स्टीफन कालेज दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं की ये दलीलें गलत हैं कि अगर वह कानून के तहत विश्वविद्यालय नही बनते तो उनकी डिग्री को मान्यता नहीं मिलती। मेहता ने कहा कि ब्रिटिश सरकार भले मान्यता न देती, अन्य संस्थानों जैसे शांति निकेतन और आइआइटी रुड़की (उस समय दूसरे नाम से था) ने भी ब्रिटिश एक्ट के तहत विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं लिया था, लेकिन उनकी डिग्रियों की बहुत मान्यता थी। मेहता ने अपनी दलीलें साबित करने के लिए AMU के गठन के बारे में ऐतिहासिक तथ्य, पत्राचार और 1920 के एक्ट के प्राविधानों का हवाला दिया।

कोर्ट में अजीज बाशा फैसले में दी गई व्यवस्था की व्याख्या की

 

उन्होंने कहा कि 1920 का AMU कानून देखिए जिसमें नए कानून से नई संस्था जन्मी और पुरानी संस्था जो सोसायटी एक्ट में पंजीकृत थी, वह खत्म हो गई। मंगलवार को अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने भी पक्ष रखा और कोर्ट में अजीज बाशा फैसले में दी व्यवस्था की व्याख्या की। सुनवाई के दौरान पीठ ने भी कई सवाल किए। कोर्ट ने यह भी कहा कि अब कानून की तय व्यवस्था है कि अगर आप सरकारी सहायता चाहते हैं तो आपको अल्पसंख्यक दर्जा नहीं छोड़ना होता। पीठ ने कहा, ‘संकेत क्या हैं (विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जा खोने का)? बाद में हम इसे फिर से देखेंगे ताकि यह पता चल सके कि जब इसे विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया था, तो इसने अपना अल्पसंख्यक का दर्जा छोड़ दिया था। केवल यह तथ्य कि इसे विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया था, अल्पसंख्यक दर्जे का समर्पण नहीं है। हमें स्वतंत्र रूप से यह देखना होगा कि क्या 1920 के अधिनियम से एएमयू का सांप्रदायिक दर्जा खत्म हो गया था।’

 

 

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