मनमाने तरीके से नहीं चलेगा बुलडोजर, सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए दिशा-निर्देश
नई दिल्ली, बीएनएम न्यूज। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में बिना कानूनी प्रक्रिया के बुलडोजर से संपत्तियां गिराने की कार्रवाई को गैरकानूनी और अराजक करार दिया है। सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि मनमानी तरीके से संपत्तियों को ध्वस्त करने की कार्यवाही संविधान और कानून के शासन के सिद्धांत के विपरीत है। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने यह फैसला जमीयत उलमा-ए-हिंद और अन्य की याचिकाओं पर सुनाया, जिसमें सरकार द्वारा बिना उचित प्रक्रिया के संपत्ति ध्वस्तीकरण की घटनाओं को चुनौती दी गई थी।
संवैधानिक अधिकार और न्याय का सिद्धांत
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 95 पृष्ठ के आदेश में संविधान में विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका की शक्तियों के पृथक्करण पर जोर दिया। अदालत ने कहा कि कार्यपालिका, जो सरकार के कार्यकारी अंग के रूप में कार्य करती है, किसी भी व्यक्ति को बिना न्यायिक प्रक्रिया के दंडित नहीं कर सकती। यह न्यायिक शक्तियों का अतिक्रमण होगा और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ होगा। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी का घर केवल आरोपित होने के आधार पर बिना कानूनी प्रक्रिया के गिराया जाता है, तो यह कार्य असंवैधानिक और कानून के शासन के सिद्धांत के खिलाफ होगा।
अदालत ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति की संपत्ति को ध्वस्त करने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना अनिवार्य है। भले ही वह व्यक्ति किसी अपराध में आरोपित या दोषी हो, तब भी उसकी संपत्ति को ध्वस्त करने के लिए न्यायिक आदेश की आवश्यकता होती है। न्यायालय ने कार्यपालिका को चेतावनी दी कि किसी भी मनमानी कार्रवाई को अदालत की अवमानना माना जाएगा और इसके लिए जिम्मेदार अधिकारी पर मुकदमा चलाया जा सकता है।
घर के अधिकार को माना मौलिक अधिकार
अदालत ने घर के मौलिक अधिकार को जीवन के अधिकार का अभिन्न हिस्सा माना। पीठ ने कहा कि घर सिर्फ एक संपत्ति नहीं है, बल्कि यह एक व्यक्ति के लिए आश्रय स्थल है और जीवन जीने के अधिकार में आता है। इस प्रकार, किसी का घर तोड़ना व्यक्ति के जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। न्यायालय ने यह भी कहा कि कार्यपालिका किसी को भी न्यायिक प्रक्रिया के बिना दंडित नहीं कर सकती और संपत्तियों को गिराने की किसी भी कार्रवाई में पारदर्शिता और न्यायिक निगरानी होनी चाहिए।
15 दिन का नोटिस और सुनवाई का अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में संपत्तियों को ध्वस्त करने की कार्रवाई के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए। इन दिशा-निर्देशों के अनुसार, संपत्ति ध्वस्त करने से पहले 15 दिन का नोटिस देना और संबंधित व्यक्ति को अपनी बात रखने का अवसर देना अनिवार्य होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस आदेश का कड़ाई से पालन होना चाहिए और जो भी अधिकारी इस प्रक्रिया का उल्लंघन करेंगे, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। अदालत ने यह भी चेतावनी दी कि ऐसा करने पर न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी और संबंधित अधिकारियों पर मुकदमा भी चलाया जा सकता है।
चुनिंदा कार्रवाई पर उठे सवाल
कोर्ट ने राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलें भी सुनीं। मेहता ने कहा कि संपत्तियों को केवल आरोपित होने के आधार पर ध्वस्त नहीं किया जाता, बल्कि यह कार्रवाई स्थानीय और पंचायत कानूनों तथा बिल्डिंग संबंधी नियमों के उल्लंघन के आधार पर होती है। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि यह एक संयोग हो सकता है कि किसी के खिलाफ ध्वस्तीकरण की कार्रवाई उसी समय हो जब वह किसी अपराध में आरोपित हो। लेकिन अगर केवल चुनिंदा संपत्तियों को निशाना बनाया जाता है, जबकि आसपास के अवैध निर्माणों को छोड़ दिया जाता है, तो यह दुर्भावना को दर्शा सकता है। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी विशेष संपत्ति को जानबूझकर चुना जाता है और इसके पीछे कोई आपराधिक मामला जुड़ा हो, तो इससे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि उद्देश्य अवैध निर्माण को गिराना नहीं, बल्कि व्यक्ति को दंडित करना है।
सामूहिक दंड की मनाही
अदालत ने यह भी कहा कि एक घर में कई लोग रहते हैं और किसी एक व्यक्ति के अपराध में शामिल होने के आधार पर पूरे परिवार को सामूहिक रूप से दंडित नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि अगर किसी के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसके परिवार के सभी सदस्य दोषी हैं और उन्हें उनके घर से बेदखल किया जा सकता है। यह संविधान और कानून के तहत स्वीकार्य नहीं है।
अधिकारी होंगे जवाबदेह
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि मनमानी कार्रवाई करने वाले सरकारी अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। अगर बिना कानूनी प्रक्रिया के किसी की संपत्ति गिराई जाती है, तो संबंधित अधिकारी को उस संपत्ति के पुनर्निर्माण का खर्च अपनी जेब से देना होगा। इसके अलावा, उसे क्षतिपूर्ति भी देनी होगी। कोर्ट ने कहा कि कार्यपालिका को पारदर्शिता के साथ काम करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भेदभाव या मनमानी न हो।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में कानून का शासन सर्वोपरि है और कार्यपालिका को न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना ही होगा। यह फैसला न केवल कानूनी प्रक्रिया की अहमियत को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें और मनमानी कार्रवाइयों को रोका जा सके। साथ ही, यह आदेश सरकारी अधिकारियों को उनकी जिम्मेदारी और जवाबदेही का भी एहसास कराता है, ताकि वे अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करें और निष्पक्षता से काम करें।
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