आम चुनाव और आम आदमी

सोसायटी की हालत ऐसी हो चुकी है कि अपनी औकात के हिसाब से यहां हर आदमी बिकने को तैयार बैठा है। देश के मतदाताओं में से शायद/बामुश्किल 1 या 2% मतदाता ही ऐसे होंगे जो सोसायटी के चहुमुखी विकास या मौलिक मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट डालणे का मन बनाते होंगे। बाकी जो बचे 99% उनमें से हर आदमी अपने स्वार्थ से कनेक्ट हो चुका है, हर आदमी बस यही कैलकुलेशन करता है कि ऊंट के किस करवट बैठने से उसे पर्सनल फायदा होने वाला है।
नेता हो या मतदाता अपने मतलब के चलते हर कोई इधर का दिखते हुए कब उधर का हो जाए ये कभी पता ही नहीं चलता। साथ ही एक बड़ा नैक्सस बड़े ही शातिराना ढंग से यहां काम करता है जिसने लोगों के सोचने की क्षमता का हनन करके उन्हें दिमागी तौर पर पंगु बना दिया गया है
शिक्षा-स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाओं में सुधार हो, लॉ & ऑर्डर बना रहे, सिस्टम ट्रांसपेरेंट हो, भाई भतीजा चेला गुरुडमवाद ना हो, भ्रष्टाचार, लूट, गुंडागर्दी खत्म हो इन सब बातों से अब उन्हें कोई मतलब नहीं और ना ही ये सब अब उन के एजेंडे में हैं
कोई दाल पे बिक रहा तो कोई गाल पे बिक रहा
यहां आदमी को घेरने के हर टोटके पर काम होता है
सब के सब कहीं ना कहीं सैट हैं, सबने अपना अपना एक ऊपर वाला पकड़ रखा है और उस ऊपर वाले ने भी अपणे ऊपर एक ऊपर वाला पकड़ रखा है। ये अपने से ऊपर वाले को पकड़ने की सीरीज ही आज एक आम भारतीय की तरक्की की सीढ़ी है, ऊपर वाले की झूठन नीचे वाले के हिस्से आती है और नीचे वाले की झूठन उससे नीचे वाले के हिस्से में जाती है, हर आदमी ऊपर चाटता है और नीचे काटता है।
लगभग हर आदमी की प्राथमिकताओं में उसकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं हैं और वो जहां भी जुड़ा है उसी मकसद से जुड़ा है। ऊपर और नीचे वालों को आपस में एक दूसरे की जरूरत है और ये स्वार्थ के साथ स्वार्थ का गठबंधन है, बाकी बचा समाज, उसके सिद्धांत, मर्यादा और नैतिकता ये सब भाड़ में जा चुके हैं।
*- સુમિત*
लेखक परिचय लेखक का नाम सुमित पूनिया है, जोकि रोहतक के पास माकडोली कलां के रहने वाले हैं। बहुत युवा आयु मे गांव के भूतपूर्व सरपंच रह चुके हैं,हरियाणा सरपंच ऐसोसिसन के प्रधान के रूप में भी सेवाएं दे चुके हैं। बौद्धिक स्तर पर समाज सुधारक व सोशल मीडिया पर लगातार अपने लेखन के कारण विख्यात है।