Haryana Politics : हरियाणा में चश्मा पहन चुनावी मैदान में हाथी कूदा तो कई सीटों पर बदल सकता है सियासी समीकरण
नरेन्द्र सहारण, कैथल : Haryana Politics : हरियाणा में बसपा का भले ही बड़ा मत प्रतिशत नहीं हो पहले के विधानसभा चुनाव में दूसरी पार्टियों का समीकरण बिगाड़ने में अहम भूमिका रही है। अक्टूबर में होने वाले आगामी विधान सभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को हर विधानसभा सीट पर जातीय समीकरण देखकर ही उम्मीदवार उतारने होंगे। क्योंकि बसपा का इनेलो के साथ गठबंधन हो चुका है। और दोनों पार्टियों ने बीच सीट का भी बटवारा हो चुका है। 90 में से 37 विधानसभा सीट पर बसपा अपने उम्मीदवार उतारेगी। यह वह सीट होंगी, जहां पर अनुसूचित जाति के मतदाता अच्छी संख्या में हैं। हालांकि कुछ दिन पहले ही हुए लोकसभा चुनाव में बसपा को 1.28 तथा इनेलो को 1.74 प्रतिशत ही वोट मिले हैं। लेकिन क्षेत्रीय मसलों पर होने वाले विधानसभा चुनाव में नतीजे बदल जाते हैं। गठबंधन से कांग्रेस को अधिक नुकसान हो सकता है। जबकि भाजपा को लाभ मिल सकता है।
प्रदेश में बसपा का अच्छा खासा कैडर
बता दें कि हरियाणा के चुनावी रण में बसपा का हाथी अब तक अपनी मदमस्त चाल ही चला है। उसने कई दलों को साथी जरूर बनाया, लेकिन गठबंधन लंबा नहीं चल पाया। बसपा सुप्रीमो मायावती को किसी का साथ ज्यादा भाता भी नहीं है।बसपा ने 1991 के विधानसभा चुनाव में पहली बार अपने प्रत्याशी उतारे थे। उसके बाद से अब तक पार्टी लगातार चुनाव लड़ती है। 1996 के चुनाव में ही ऐसा मौका आया, जब बसपा का कोई विधायक नहीं जीता, अन्यथा हर चुनाव में बसपा का एक विधायक बनता आ रहा है। प्रदेश में पार्टी का अच्छा खासा कैडर है, बावजूद इसके मायावती कुछ ज्यादा करिश्मा नहीं दिखा सकीं। तीसरी बार होगा जब दोनों दल साथ आ रहे हैं।
साल 1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान इनेलो और बसपा के बीच पहली बार गठबंधन हुआ था। इनेलो ने सात और बसपा ने तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था। इसके बाद दूसरी बार साल 2018 में बसपा और इनेलो के बीच राजनीतिक गठजोड़ हुआ। हालांकि ये गठबंधन वर्ष 2019 में हुए विधानसभा चुनाव तक लोगों के बीच नहीं पहुंच पाया। चुनाव से पहले ही दोनों दल अलग हो गए थे।
बसपा ने 1991 के विधानसभा चुनाव में पहली बार अपने प्रत्याशी उतारे थे। उसके बाद से अब तक पार्टी लगातार चुनाव लड़ती है। 1996 के चुनाव में ही ऐसा मौका आया जब बसपा का कोई विधायक नहीं जीता, अन्यथा हर चुनाव में बसपा का एक विधायक बनता आ रहा है। हालांकि इसके बाद भी मायावती कुछ ज्यादा करिश्मा नहीं दिखा सकीं। पार्टी एक ही विधायक तक सीमित रही है। 2014 विधानसभा चुनाव में पृथला सीट से टेकचंद शर्मा बसपा विधायक बने थे। वह अधिक दिन तक सत्ता के मोह से दूर नहीं रह सके और भाजपा में चले गए थे यह हुआ कि बसपा ने पार्टी से निष्कासित कर दिया। 2009 में जगाधरी से अकरम खान बसपा विधायक चुने गए थे। उन्होंने विधानसभा में कांग्रेस को समर्थन दे दिया था।
चुनावी समीकरण बिगाड़ने में माहिर
प्रदेश में बसपा का वोट प्रतिशत 2014 के विधानसभा चुनाव में 4.4 प्रतिशत रहा था। 2009 में 6.74 प्रतिशत और 1996 व 2000 में क्रमश : 5.44, 5.74 प्रतिशत वोट पार्टी को मिले थे। बसपा का हर विधानसभा क्षेत्र में वोट बैंक है और पार्टी उम्मीदवार किसी भी बड़े दल के प्रत्याशी का चुनावी गणित बिगाड़ देते हैं। गठबंधन के उम्मीदवार कड़े मुकाबले वाली सीटों पर जीत-हार में अहम भूमिका निभाएंगे। उन्हें मिलने वाले वोट भाजपा, कांग्रेस उम्मीदवारों में से किसी को भी विधानसभा पहुंचने से रोक सकते हैं।
चुनाव दर चुनाव बसपा का परफार्मेंस
वर्ष कितनी सीटों पर लड़े कितनी जीती मत प्रतिशत
1991 26 1 2.32
1996 67 0 5.44
2000 83 1 5.74
2005 84 1 3.22
2009 86 1 6.74
2014 90 1 4.40
2019 76 4.23
बसपा से अब तक जीते विधायक
नारायणगढ़ विधानसभा क्षेत्र से सुरजीत कुमार, जगाधरी से डा. बिशन लाल, छछरौली से अर्जन सिंह, जगाधरी से अकरम खान, पृथला क्षेत्र से टेकचंद शर्मा।
अब तक बसपा के प्रदेश में रहे गठबंधन
. हरियाणा में बसपा ने 1998 में इनेलो के साथ गठबंधन किया। बाद में तोड़ा।
. 2009 में कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। बाद में अलग हो गए
. मई 2018 में फिर इनेलो के साथ गठबंधन, एक साल से पहले ही टूटा। जींद उपचुनाव में करारी हार के बाद बसपा को इनेलो का अस्तित्व खतरे में नजर आने लगा।
. इनेलो के साथ गठबंधन तोड़कर फरवरी 2019 में राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का साथ पकड़ा। चंद महीने बाद गठबंधन खत्म।
. लोसुपा के बाद बसपा ने 11 अगस्त 2019 को जजपा के साथ गठबंधन किया। छह सितंबर 2019 को जजपा से भी तोड़ा नाता।
हाथी चाबी लेकर आगे नहीं चला
वर्ष 2019 में हुए विधानसभा चुनाव एक लड़ने के लिए बसपा ने जजपा के साथ गठबंधन किया। जजपा नेता दुष्यंत चौटाला व बसपा नेता सतीश मिश्र ने 50-40 के फार्मूले पर सहमति जताई थी। महीने के भीतर ही रिश्ते टूट गए बसपा अकेले ही मैदान में कूदी थी।
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