हरियाणा में हजारों सरकारी कर्मचारियों की पक्की नौकरी पर संकट, 2019 के बाद की सभी भर्तियों के परिणाम होंगे रद

नरेंद्र सहारण, चंडीगढ़ : Haryana Sarkari Naukri: पंजाब और हरियाणा के नागरिकों एवं सरकारी कर्मचारियों के लिए एक बड़ा और महत्वपूर्ण निर्णय सामने आया है। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने 11 जून 2019 को जारी उस अधिसूचना को पूरी तरह निरस्त कर दिया है, जिसके तहत सरकारी भर्तियों में सामाजिक-आर्थिक आधार और अनुभव के नाम पर 10 अतिरिक्त अंक दिए जा रहे थे। इस फैसले ने न केवल चयन प्रक्रिया को ही बदल कर रख दिया है, बल्कि इस परंपरागत प्रणाली पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। अदालत ने इस आदेश में स्पष्ट किया है कि ऐसी नीति, जिसमें योग्यता से हटकर केवल सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर अतिरिक्त अंक दिए गए हों, संविधान के समता और समान अवसर के मूल सिद्धांत के खिलाफ है।
यह फैसला उस समय आया है जब हजारों कर्मचारियों की नियुक्ति और भविष्य का सवाल था। कोर्ट ने इन सभी नियुक्तियों को रद्द करने का आदेश दिया है और कहा है कि नए सिरे से परिणाम तैयार किए जाएं, जिनमें केवल मेरिट और योग्यता का ही आधार माना जाएगा। इस फैसले का प्रभाव लाखों नागरिकों, सरकारी कर्मचारियों और भर्ती प्रक्रिया में शामिल उम्मीदवारों पर पड़ेगा। इस लेख में हम इस ऐतिहासिक फैसले का विस्तृत विश्लेषण करेंगे, कोर्ट के तर्क, सरकारी तर्क, इस फैसले का सामाजिक और कानूनी महत्व, और भविष्य की दिशा पर चर्चा करेंगे।
2019 की अधिसूचना
2019 में हरियाणा सरकार ने एक नई भर्ती नीति लागू की, जिसमें सामाजिक-आर्थिक आधार पर अतिरिक्त अंक देने का प्रावधान किया गया। इस नीति के तहत, जिन उम्मीदवारों का सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन प्रमाणित किया गया, उन्हें 10 अतिरिक्त अंक दिए गए। इसका मकसद था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को सरकारी नौकरी में अवसर मिले और वे सामाजिक रूप से समावेशी बन सकें।
यह नीति उन भर्तियों में लागू की गई, जिनके परिणाम अभी घोषित नहीं हुए थे। सरकार का तर्क था कि, “यह नीति समाज के कमजोर वर्गों को अवसर प्रदान करने और उन्हें समानता का अधिकार दिलाने के लिए है।” परंतु, इस नीति का विरोध शुरू हो गया। विपक्षी दल, सामाजिक संगठनों और कुछ अभ्यर्थियों का कहना था कि यह प्रक्रिया योग्यता और मेरिट के कट्टर आधार को कमजोर कर देगी।
हाईकोर्ट का फैसला: अंकों को अस्वीकार करने का आधार
हाईकोर्ट ने इस नीति को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया है। जस्टिस संजीव प्रकाश शर्मा और जस्टिस मीनाक्षी मेहता की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में कहा कि, “यह अधिसूचना संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध है।” अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसा प्रावधान, जिसमें सामाजिक-आर्थिक आधार पर अतिरिक्त अंक दिए जाएं, यह संविधान के समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने कहा कि किसी भी भर्तियों में योग्यता, अनुभव और मेरिट को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यदि सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन भी मान्य माना जाए, तो भी उस आधार पर अतिरिक्त अंक देना, इस सीमा (50 प्रतिशत) को उल्लंघन करता है।
चयन प्रक्रिया की पुनः समीक्षा और आदेश
एक महत्वपूर्ण निर्णय में अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि जिन भर्तियों के परिणाम 2019 के बाद घोषित किए गए हैं और जिनमें अतिरिक्त अंक दिए गए हैं, वे सभी परिणाम रद्द किए जाएं। नए सिरे से चयन प्रक्रिया शुरू की जाए और इसमें केवल मेरिट और योग्यता को ही महत्व दिया जाए।
साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि जिन उम्मीदवारों का चयन इन भर्तियों के आधार पर हुआ है, उन्हें सजा नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी गलती नहीं थी। बल्कि, यह सरकार की नीति में खामियों का परिणाम है। अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि जो उम्मीदवार पहले से ही कार्यरत हैं, उन्हें सेवा से बाहर करने का आदेश तुरंत नहीं दिया जाएगा। बल्कि, उन्हें अस्थायी या कच्ची नौकरी दी जाएगी, जब तक कि स्थायी पद खाली न हो। जब नए परिणाम जारी होंगे और चयन प्रक्रिया पुनः होगी, तो नए चयनकर्ता ही वरिष्ठता और अन्य लाभों का लाभ उठाएंगे।
सरकार का तर्क और उसकी प्रतिक्रिया
सरकार ने तर्क दिया कि यह नीति समाज के कमजोर वर्गों को अवसर प्रदान करने और उन्हें समानता का अधिकार दिलाने के लिए है। यह “जनकल्याण सर्वोच्च कानून” के सिद्धांत पर आधारित है। सरकार का दावा है कि, “यह नीति सामाजिक न्याय और समरसता के लिए आवश्यक है।”
किन्तु, कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया है। अदालत ने कहा कि, “यह नीति, जो योग्यता से हटकर सामाजिक स्थिति के आधार पर अंक प्रदान करती है, संविधान के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है।” कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि आर्थिक पिछड़ापन का लाभ पहले से आरक्षण के माध्यम से मिल रहा है, तो फिर इस तरह के अतिरिक्त लाभ की आवश्यकता ही नहीं थी। यह आरक्षण का ही एक स्वरूप है, जो 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है।
कानूनी, सामाजिक और नीतिगत विश्लेषण
यह फैसला केवल एक न्यायिक आदेश ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है। इसने दिखाया कि योग्यता, मेरिट और अनुभव ही सरकारी नौकरी का आधार होना चाहिए। सामाजिक-आर्थिक आधार पर अंकों का यह प्रावधान, संविधान के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।
सामाजिक न्याय के नाम पर ऐसी नीतियां, जो योग्यता के स्थान पर सामाजिक स्थिति को प्राथमिकता देती हैं, यह लोकतंत्र और समानता के अधिकार के खिलाफ हैं। यह फैसला सरकार के उन तर्कों को भी झुठलाता है, जिसमें कहा गया था कि यह नीति समाज के कमजोर वर्गों के लिए है।
वास्तव में, यह फैसला यह भी संकेत करता है कि सरकारी भर्तियों में पारदर्शिता, योग्यता और मेरिट का संरक्षण आवश्यक है। इससे न केवल चयन प्रक्रिया मजबूत होगी, बल्कि इससे सरकारी कर्मचारियों की स्थिरता और जनता का भरोसा भी बढ़ेगा।
भविष्य की दिशा: सुधार की दिशा
यह फैसला सरकार और भर्ती विभागों के लिए चेतावनी है कि वे भविष्य में ऐसी योजनाएं न बनाएं, जो संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन करें। भर्ती प्रक्रिया में केवल योग्यता, अनुभव और मेरिट को ही मान्यता दी जानी चाहिए।
साथ ही, सरकार को चाहिए कि वह नई नीति बनाते समय, सामाजिक न्याय और समानता के मूल सिद्धांतों का सम्मान करे। यदि समाज के कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान है, तो उसकी सीमा भी मान्य होनी चाहिए।
भर्ती के दौरान पारदर्शिता, वैज्ञानिक आधार और निष्पक्षता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इससे न केवल भ्रष्टाचार और मनमानी रोकी जा सकेगी, बल्कि युवाओं में भरोसा भी बना रहेगा।
ऐतिहासिक निर्णय
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का यह फैसला एक बहुत बड़ा एवं ऐतिहासिक निर्णय है, जो सरकारी भर्तियों में योग्यता और मेरिट की महत्ता को पुनः स्थापित करता है। इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सामाजिक-आर्थिक आधार पर अतिरिक्त अंकों का प्रावधान न केवल संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह चयन प्रक्रिया को भी दूषित करता है।
यह निर्णय उन लाखों युवाओं, कर्मचारियों और अभ्यर्थियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो योग्यता के आधार पर अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। साथ ही, यह सरकार को भी सुधार करने का अवसर देता है कि भविष्य में ऐसी नीतियों से बचा जाए और पूरी पारदर्शिता के साथ योग्य एवं अनुभवियों का चयन हो।
अंततः, यह फैसला लोकतंत्र, समानता और न्याय के मूल सिद्धांतों को मजबूत करने वाला है, और हमें इस बात का भी एहसास कराता है कि संविधान के प्रति सजगता और उसके मूल अधिकारों का सम्मान सर्वोपरि है।