चौधरी रामकला एक साधारण से गाँव, मे एक असाधारण इंसान जिनको अतिथि देवो भव: के भाव ने अमर कर दिया

एक साधारण गाँव, एक असाधारण इंसा

नरेन्द्र सहारण 

हरियाणा के कैथल जिले का छोटा-सा गाँव ग्योंग, जहाँ खेतों की हरियाली और मेहनत की खुशबू बसी थी, वहाँ जन्म हुआ एक ऐसे शख्स का, जिसने अपनी सादगी और निःस्वार्थ सेवा से न केवल अपने गाँव का नाम रोशन किया, बल्कि पूरे क्षेत्र में एक किंवदंती बन गया। यह कहानी है रामकला सिंगरोहा की, जिन्हें लोग प्यार से “रामकला ग्योंग आला” कहते थे। उनकी जिंदगी एक ऐसी फिल्म की तरह है, जिसमें नायक का किरदार न तो तलवार से लड़ता है, न सोने-चाँदी से सजा है, बल्कि उसका हथियार है उसका प्रेम, उसकी करुणा और उसकी अतिथि सेवा की भावना।

 

गाँव की मिट्टी से उपजा एक सितारा

कैथल के ग्योंग गाँव में, एक साधारण जाट किसान परिवार में रामकला का जन्म हुआ। खेतों में काम करने वाला यह परिवार मेहनत और ईमानदारी की मिसाल था। रामकला का बचपन गाँव की गलियों में, खेतों की मेड़ों पर और बैलों की घंटियों की आवाज़ में बीता। लेकिन उनके दिल में कुछ ऐसा था, जो उन्हें औरों से अलग करता था। वह था “अतिथि देवो भव” का संस्कार, जो उनकी रगों में बसा था।

 

रामकला की जवानी में, जब देश आज़ादी की जंग लड़ रहा था, उन्होंने अपने गाँव और समाज के लिए कुछ बड़ा करने की ठानी। 1942 में, जब सर छोटू राम जैसे महान समाज सुधारक के साथ उनकी मुलाकात हुई, तो रामकला ने उनके साथ मिलकर कैथल में जाट संस्था और जाट कॉलेज की नींव रखी। यह एक ऐसा कदम था, जिसने शिक्षा और सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया। लेकिन रामकला की असली पहचान बनी उनके उस गुण ने, जो उनके दिल की गहराइयों से निकला था।

 

अतिथि सत्कार का मंदिर – रामकला का घर

 

रामकला का घर ग्योंग में एक तीर्थस्थल की तरह था। दिन हो या रात, कोई अनजान राहगीर हो या पड़ोसी, उनके घर का दरवाजा हर भूखे के लिए खुला रहता था। रामकला की आँखों में हर मेहमान के लिए अपनापन और हर भूखे के लिए करुणा झलकती थी। वह न तो जाति देखते थे, न धर्म, न किसी की पहचान। उनके लिए हर इंसान एक मेहमान था, जिसे भगवान ने उनके द्वार पर भेजा था।

 

कल्पना कीजिए एक दृश्य: सूरज ढल रहा है, गाँव की गलियों में धूल उड़ रही है, और एक थका-हारा मुसाफिर ग्योंग की ओर बढ़ रहा है। उसे भूख सता रही है, और वह नहीं जानता कि रात कहाँ बिताएगा। गाँव में प्रवेश करते ही एक बुजुर्ग उसे देखकर मुस्कुराता है और कहता है, “चल, रामकले के पास जा। वहाँ तेरा पेट भर जाएगा, और रात की ठौर भी मिलेगी।” वह मुसाफिर रामकला के घर पहुँचता है। दरवाजे पर रामकला स्वयं खड़े हैं, चेहरे पर सादगी भरी मुस्कान। “आ जा भाई, घर में आ, भूखा तो नहीं?” यह सवाल उनके होठों पर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा से निकलता था।

 

रामकला की रसोई में उनकी धर्मपत्नी, जिन्हें गाँव वाले प्यार से “माताजी” कहते थे, चूल्हे पर रोटियाँ सेंक रही होती थीं। दाल की खुशबू हवा में तैर रही होती, और मेहमान के लिए थाली सज रही होती। रामकला और उनकी पत्नी का यह प्रेम ऐसा था, जैसे कोई पवित्र अनुष्ठान। मेहमान को न केवल भोजन मिलता, बल्कि रात को ठहरने के लिए एक साफ-सुथरा बिस्तर भी। यह सब बिना किसी दिखावे के, बिना किसी अपेक्षा के।

 

एक किंवदंती का जन्म

 

रामकला की यह मेहमाननवाजी गाँव की सीमाओं को पार कर गई। आसपास के गाँवों में लोग कहते, “अरे, ग्योंग जा रहा है? तो रामकले के पास रुकना।” धीरे-धीरे रामकला का नाम एक ब्रांड बन गया। जैसे पहलवान दारा सिंह की ताकत की चर्चा हर गली-मोहल्ले में थी, वैसे ही रामकला की मेहमाननवाजी की कहानियाँ हर घर में सुनाई जाने लगीं। “जमा रामकला बणरया सै!” “देख्या नी इसा रामकला!” “टिक जा रामकले!” – ये वाक्य गाँव-गाँव में गूंजने लगे।

 

जब कोई कहता, “मैं ग्योंग से हूँ,” तो सामने वाला तुरंत पूछता, “रामकले वाली ग्योंग से?” एक साधारण किसान ने अपने कर्मों से पूरे गाँव को अमर कर दिया। उनकी ख्याति 70-80 किलोमीटर दूर जींद के नरवाना तक पहुँची। वह दौर 1940-50 का था, जब न टेलीविजन था, न इंटरनेट, न ही तेज संचार के साधन। फिर भी, रामकला का नाम हर जुबान पर था। कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला एक युवा, जब अपने दोस्त से रामकला का नाम सुनता है, तो हैरान रह जाता है। उसका दोस्त कहता है, “तुझे नहीं पता? हमारे बुजुर्ग तो रामकले की कहानियाँ सुनाते हैं!” यह थी रामकला की अच्छाई की ताकत, जो बिना किसी प्रचार के इतनी दूर तक फैली।

 

माताजी – रामकला की असली शक्ति

 

इस कहानी का सबसे सुंदर हिस्सा है रामकला की धर्मपत्नी, जिन्हें गाँव वाले “माताजी” कहकर सम्मान देते थे। वह एक ऐसी स्त्री थीं, जिनका दिल करुणा का सागर था। रामकला की मेहमाननवाजी तब तक अधूरी थी, जब तक माताजी ने उसमें अपनी आत्मा नहीं डाली। वह सुबह से शाम तक चूल्हे पर खड़ी रहतीं, मेहमानों के लिए भोजन बनातीं, और हर किसी को माँ की तरह प्यार देतीं।

 

कल्पना कीजिए एक दृश्य: रात का समय, रामकला का घर रोशनी से जगमगा रहा है। माताजी रसोई में रोटियाँ बना रही हैं, और रामकला मेहमानों से हँसी-मजाक कर रहे हैं। एक अनजान यात्री, जो दिनभर की थकान और भूख से टूटा हुआ है, माताजी की बनाई रोटी और दाल खाकर कहता है, “माँ, ऐसा खाना तो मेरे घर में भी नहीं मिलता।” माताजी की आँखों में संतुष्टि की चमक और रामकला के चेहरे पर गर्व की मुस्कान। यह जोड़ी एक-दूसरे की ताकत थी, और उनकी सेवा ने ग्योंग को एक तीर्थस्थल बना दिया।

 

कर्म का फल

 

रामकला ने कभी अपनी सेवा का फल नहीं माँगा। उन्होंने न तो प्रसिद्धि चाही, न ही सम्मान। लेकिन जैसा कि कहा जाता है, “कर्म का फल अवश्य मिलता है।” रामकला की अच्छाई ने उन्हें वह सम्मान दिया, जो बड़े-बड़े लोग तरसते हैं। उनकी कहानियाँ गाँव-गाँव में फैलीं, और लोग उन्हें एक संत की तरह याद करने लगे। उनकी पत्नी, जिन्होंने हर कदम पर उनका साथ दिया, उनकी प्रसिद्धि की सुगंध को और फैलाया।

 

एक प्रेरणा जो अमर है  

 

रामकला सिंगरोहा ग्योंग आला की कहानी एक सिनेमाई महाकाव्य की तरह है। यह हमें सिखाती है कि सच्ची सेवा का कोई दिखावा नहीं होता। यह हमें बताती है कि एक साधारण इंसान अपने कर्मों से कितना असाधारण बन सकता है। रामकला और उनकी पत्नी ने साबित किया कि भूख से बड़ी कोई आपदा नहीं, और इसे मिटाने का सबसे बड़ा हथियार है प्रेम और करुणा।

 

उनका जीवन हमें यह सूत्र देता है:  

“नींद नी देखै बिस्तरा, भूख नी देखै मांस,  

मौत नी देखै उम्र नै, इश्क नी देखै जात।”

 

निवेदन

 

रामकला सिंगरोहा की यह कहानी हमें प्रेरित करती है कि हम भी अपने जीवन में निःस्वार्थ सेवा का भाव अपनाएँ। मलाल की बात यह हरियाणा का कोई हरियाणवी इंडस्ट्रीज से संबंध रखने वाला निर्माता, निर्देशक उनकी जीवनी पर किसी फिल्म का फिल्मांकन नहीं कर पाया। दादा लख्मीचंद जैसी फ़िल्में बन चुकी हैं एक फिल्म इन पर भी बननी चाहिए

 

अगर आपने भी उनके बारे में कोई कहानी सुनी है, तो कमेंट में साझा करें। अपने जिले का नाम ज़रूर बताएँ, ताकि हम देख सकें कि उनकी अच्छाई की खुशबू कितनी दूर तक फैली। आइए, चौधरी रामकला की तरह, बिना दिखावे के, भूखे को खाना खिलाएँ और मानवता की सेवा करें।

 

 

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