ICCS ने दिल्ली में विश्व परंपराओं के संग्रहालय का किया शुभारंभ, वैश्विक संकटों के समाधान का दिखाया मार्ग

नई दिल्ली: एक ऐसी दुनिया में जो तीव्र तकनीकी प्रगति, भू-राजनीतिक संघर्षों और पर्यावरणीय संकटों से जूझ रही है, समाधान कहां मिल सकता है? क्या भविष्य की राह केवल भविष्य की तकनीकों में है या अतीत के गहरे ज्ञान में भी छिपी है? इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाशने की एक महत्वपूर्ण और दूरदर्शी पहल के रूप में इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज़ (ICCS) ने गुरुवार शाम नई दिल्ली में विश्व की प्राचीन परंपराओं पर आधारित एक अनूठे संग्रहालय का उद्घाटन किया।

राष्ट्रीय राजधानी के वैचारिक केंद्र झंडेवाला स्थित ICCS के राष्ट्रीय कार्यालय ‘साधना’, केशव कुंज में आयोजित यह भव्य समारोह केवल एक और संग्रहालय का उद्घाटन नहीं था, बल्कि यह एक वैश्विक आंदोलन का उद्घोष था। यह एक आह्वान था कि मानवता अपनी जड़ों की ओर लौटे और उन शाश्वत सिद्धांतों को फिर से खोजे जो सदियों से विभिन्न संस्कृतियों का मार्गदर्शन करते आए हैं। इस अभूतपूर्व कार्यक्रम में भारत और विश्व के कोने-कोने से आए 100 से अधिक शीर्ष विद्वानों, शोधकर्ताओं और संस्कृति-प्रेमियों ने भाग लिया, जिससे यह समारोह विचारों का एक वैश्विक संगम बन गया।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ICCS भारत के संरक्षक और एक गहन विचारक सुरेश सोनी थे, जबकि विशिष्ट अतिथि के रूप में दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय (South Asian University) के अध्यक्ष प्रख्यात शिक्षाविद् प्रो. के.के. अग्रवाल ने अपनी उपस्थिति से समारोह की गरिमा बढ़ाई।

समारोह का शुभारंभ: एक वैचारिक यज्ञ का आरंभ

 

शाम पांच बजे जैसे ही विद्वानों से भरा हॉल शांत हुआ कार्यक्रम की शुरुआत ICCS की राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. शशिबाला द्वारा दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुई। इसके बाद उन्होंने संस्था के दृष्टिकोण, कार्यों और इस संग्रहालय की स्थापना के पीछे के गहरे उद्देश्य पर एक सारगर्भित प्रस्तुति दी। उन्होंने केवल एक संगठन का परिचय नहीं दिया बल्कि एक ऐसी दृष्टि को साझा किया जो वर्तमान विश्व की अनेक जटिल समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है।

प्रो. शशिबाला ने ICCS के तीन प्रमुख कार्यक्षेत्रों को रेखांकित किया

 

विश्व की प्राचीन परंपराओं का अध्ययन एवं संरक्षण: उन्होंने स्पष्ट किया कि ICCS का कार्य केवल अकादमिक अध्ययन तक सीमित नहीं है। इसका उद्देश्य विश्व भर में फैली उन जीवित परंपराओं, ज्ञान प्रणालियों, अनुष्ठानों और जीवन पद्धतियों का संरक्षण करना है, जो आज विलुप्त होने की कगार पर हैं। यह मौखिक इतिहास, स्वदेशी ज्ञान और उन समुदायों की सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने का एक मिशन है, जिनकी आवाजें अक्सर आधुनिकता के शोर में दब जाती हैं।

भारतीय संस्कृति की वैश्विक छाप का दस्तावेजीकरण: प्रो. शशिबाला ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संस्कृति केवल भारत की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रही है। इसका प्रभाव गणित, विज्ञान, दर्शन, कला, भाषा और आध्यात्मिकता के माध्यम से पूरे विश्व में फैला है। ICCS इस वैश्विक पदचिह्न का व्यवस्थित रूप से दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध है, चाहे वह दक्षिण पूर्व एशिया में रामायण की परंपराएं हों, सिल्क रूट के माध्यम से बौद्ध धर्म और दर्शन का प्रसार हो या पश्चिम में योग और ध्यान की बढ़ती स्वीकृति हो।

भारत के बाहर बौद्ध धर्म का विस्तार एवं शोध: तीसरे महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उन्होंने भारत के बाहर बौद्ध धर्म के विभिन्न रूपों थेरवाद, महायान, वज्रयान के विकास और उनके दार्शनिक सिद्धांतों पर गहन शोध की आवश्यकता पर बल दिया। यह कार्य यह समझने में मदद करता है कि कैसे एक भारतीय दर्शन ने विभिन्न संस्कृतियों में ढलकर शांति और करुणा का वैश्विक संदेश दिया।

नदी और मरुस्थल की सभ्यताओं का मौलिक अंतर

अपने उद्बोधन के सबसे विचारोत्तेजक हिस्से में, प्रो. शशिबाला ने मानव इतिहास को समझने के लिए एक मौलिक रूपरेखा प्रस्तुत की: नदी सभ्यताओं और मरुस्थली सभ्यताओं के बीच का अंतर। उन्होंने तर्क दिया कि किसी भी संस्कृति का मूल चरित्र उसकी भौगोलिक परिस्थितियों से गहराई से प्रभावित होता है।

नदी सभ्यताएं (Riverine Civilizations): सिंधु-सरस्वती, नील, मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुईं। नदियाँ जीवन, प्रचुरता, और एक चक्रीय लय का प्रतीक हैं। इन सभ्यताओं ने प्रकृति के साथ एक सह-अस्तित्व का संबंध विकसित किया। यहाँ से समरसता, स्थिरता, साझापन और एक टिकाऊ जीवन पद्धति के विचार उत्पन्न हुए। यहाँ का दर्शन “जियो और जीने दो” का था, क्योंकि संसाधन (जल, उपजाऊ भूमि) साझा करने के लिए पर्याप्त थे।

मरुस्थली सभ्यताएं (Desert Civilizations): इसके विपरीत मरुस्थलीय क्षेत्रों में जन्मी सभ्यताओं को संसाधनों (पानी, भोजन) की भारी कमी का सामना करना पड़ा। इस अभाव ने एक “शून्य-राशि” (zero-sum) की मानसिकता को जन्म दिया, जहाँ एक का लाभ दूसरे की हानि माना जाता है। प्रो. शशिबाला ने संकेत दिया कि इस भौगोलिक वास्तविकता ने अक्सर संघर्ष, विस्तारवाद, आक्रामकता और उग्रवाद की वैचारिक जड़ों को पोषित किया। यह विश्लेषण इस संग्रहालय की स्थापना के पीछे की गहरी सोच को उजागर करता है अर्थात आज दुनिया को नदी सभ्यताओं के समावेशी और सामंजस्यपूर्ण मूल्यों की आवश्यकता है।

परंपरा का ज्ञान ही भविष्य का समाधान : सुरेश सोनी

 

जब ICCS के संरक्षक सुरेश सोनी ने बोलना शुरू किया, तो हॉल में एक गहन शांति छा गई। उन्होंने ICCS की यात्रा को याद करते हुए कहा, यह एक विनम्र शुरुआत थी, कुछ समर्पित लोगों का एक सपना था जो आज एक वैश्विक वैचारिक मंच के रूप में साकार हो रहा है।” उन्होंने अपने मुख्य वक्तव्य में आधुनिक दुनिया की दुर्दशा पर एक मार्मिक टिप्पणी की। उन्होंने 1992 में रियो डी जनेरियो में हुए प्रसिद्ध “पृथ्वी शिखर सम्मेलन” (Earth Summit) का हवाला देते हुए कहा, “उस ऐतिहासिक सम्मेलन में दुनिया के नेता शांति, सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण जैसे महान लक्ष्यों पर सहमत हुए थे। दशकों बाद भी हम उन लक्ष्यों से कोसों दूर हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि लक्ष्य सही होते हुए भी, विकास की हमारी दिशा, हमारी सोच और हमारा मॉडल ही गलत था।”

सोनी ने तर्क दिया कि पश्चिमी विकास मॉडल जो असीमित उपभोग और भौतिकवाद पर आधारित है, स्वाभाविक रूप से अशांति और पर्यावरणीय विनाश की ओर ले जाता है। उन्होंने कहा, जब तक हम विकास के इस प्रतिमान को नहीं बदलेंगे, तब तक कोई भी शिखर सम्मेलन या संधि सफल नहीं हो सकती। समाधान बाहर नहीं भीतर है। समाधान परंपरागत ज्ञान, पूर्वी दर्शन और उन वैकल्पिक सोच में निहित है, जिन्हें हमने पुराना और अप्रासंगिक मानकर त्याग दिया था।”

इस संग्रहालय को उन्होंने इसी वैकल्पिक सोच के एक प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने ICCS द्वारा प्रत्येक तीन वर्ष में आयोजित की जाने वाली “एल्डर्स कॉन्फ्रेंस” (Elders’ Conference) का भी विशेष उल्लेख किया। यह एक अनूठा वैश्विक आयोजन है जहाँ दुनिया भर की स्वदेशी और पारंपरिक संस्कृतियों के वाहक (Elders) एक साथ आते हैं और अपनी ज्ञान-परंपरा को साझा करते हैं। यह “जीवित पुस्तकालयों” का एक संगम है, जो इस बात का प्रमाण है कि ज्ञान केवल किताबों में नहीं, बल्कि समुदायों की जीवित स्मृतियों में भी वास करता है।

अकादमिक जगत की भूमिका

विशिष्ट अतिथि प्रो. केके अग्रवाल ने इस चर्चा में महत्वपूर्ण अकादमिक दृष्टिकोण जोड़ा। साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने शिक्षा और परंपरा के बीच एक सेतु बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा, “यह संग्रहालय और ICCS जैसी संस्थाएं ज्ञान के अमूल्य भंडार हैं। अब यह अकादमिक संस्थानों की जिम्मेदारी है कि वे इस ज्ञान को गंभीरता से लें।”

उन्होंने विस्तार से बताया कि विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान इन प्राचीन परंपराओं पर गंभीर शोध को बढ़ावा दे सकते हैं, उनके माध्यम से आधुनिक समस्याओं के समाधान के लिए पाठ्यक्रम विकसित कर सकते हैं, और इस ज्ञान को वैज्ञानिक कठोरता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं ताकि इसे मुख्यधारा में स्वीकार्यता मिले। उन्होंने कहा कि प्राचीन ज्ञान को केवल अंधविश्वास कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके पीछे छिपे गहरे वैज्ञानिक और दार्शनिक सत्यों को उजागर करने की आवश्यकता है।

संग्रहालय: केवल कलाकृतियां नहीं, जीवंत परंपराओं का केंद्र

 

यह संग्रहालय पारंपरिक संग्रहालयों से भिन्न है। यह केवल पुरानी वस्तुओं या कलाकृतियों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह विश्व की जीवंत परंपराओं का एक गतिशील केंद्र बनने की आकांक्षा रखता है। यद्यपि उद्घाटन के अवसर पर सभी प्रदर्शनियों का अनावरण नहीं किया गया, लेकिन ICCS की दृष्टि के अनुसार, इसमें निम्नलिखित शामिल होने की उम्मीद है:

वैश्विक ज्ञान परंपराएं: अलग-अलग खंड जो अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और यूरोप की स्वदेशी परंपराओं, उनकी ब्रह्मांड की समझ, उनके सामाजिक ताने-बाने और उनकी कलाओं को समर्पित होंगे।
साझा मानवीय मूल्य: एक खंड जो यह दिखाएगा कि कैसे दुनिया भर की संस्कृतियों में सृजन की कहानियों, फसल उत्सवों, विवाह और जन्म के अनुष्ठानों तथा मृत्यु के संस्कारों में अद्भुत समानताएं हैं।
विचारों की यात्रा: इंटरैक्टिव मानचित्र और डिजिटल प्रदर्शन जो दिखाएंगे कि कैसे शून्य की अवधारणा, शतरंज का खेल, या पंचतंत्र की कहानियां भारत से निकलकर दुनिया भर में फैलीं।
एल्डर्स कॉर्नर: एक विशेष ऑडियो-विजुअल खंड जो “एल्डर्स कॉन्फ्रेंस” में भाग लेने वाले परंपरा-वाहकों के साक्षात्कारों, कहानियों और ज्ञान को संरक्षित करेगा।

यह संग्रहालय एक ऐसा स्थान होगा जहाँ एक छात्र यह समझ सकेगा कि अमेज़ॅन के जंगल का एक आदिवासी ब्रह्मांड के बारे में क्या सोचता है, और एक शोधकर्ता यह अध्ययन कर सकेगा कि तिब्बती चिकित्सा पद्धति और आयुर्वेद में क्या समानताएं हैं।

एक दूरदर्शी पहल का सफल समापन

समारोह का समापन ICCS भारत के कोषाध्यक्ष प्रकाशचंद्र शर्मा द्वारा दिए गए आभार ज्ञापन के साथ हुआ। उन्होंने सभी अतिथियों, विद्वानों और कार्यकर्ताओं का धन्यवाद करते हुए कहा कि यह संग्रहालय एक सामूहिक प्रयास और एक साझा सपने का परिणाम है।

अंततः ICCS द्वारा इस संग्रहालय की स्थापना एक ऐतिहासिक घटना है। यह इस विश्वास की पुष्टि है कि जब दुनिया चौराहे पर खड़ी हो, तो आगे का रास्ता दिखाने के लिए कभी-कभी पीछे मुड़कर देखना आवश्यक होता है। यह सिर्फ एक इमारत नहीं है; यह आशा का एक केंद्र है, संवाद का एक मंच है, और इस बात का एक जीवंत प्रमाण है कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना सदियों पहले था। यह संग्रहालय भविष्य की पीढ़ियों को यह याद दिलाता रहेगा कि समरसता और सह-अस्तित्व पर आधारित जीवन ही एकमात्र टिकाऊ जीवन है।

 

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