क्यों लेनी पड़ती है पति की ओट?

मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि कमेटी में शामिल विशेषज्ञों ने 18 राज्यों में पंचायतीराज संस्थाओं की निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की व्यावहारिक समस्याओं पर अध्ययन किया कि आखिर उन्हें प्रतिनिधि के रूप में अपने पति की ओट क्यों लेनी पड़ती है। अभी समिति ने अंतिम रिपोर्ट नहीं दी है, लेकिन अपने अध्ययन के कुछ प्रमुख बिंदु मंत्रालय से जरूर साझा किए हैं।

महिला प्रधानों ने क्या बताया?

समिति ने राजसमंद की एक महिला प्रधान के अनुभवों के आधार पर कहा है कि सिर्फ पांच वर्ष के कार्यकाल के लिए कोई महिला सरपंच सामाजिक और सामुदायिक मान्यताओं को तोड़ना नहीं चाहती। छत्तीसगढ़ और बिहार की महिला सरपंचों से फीडबैक मिला है कि पितृसत्ता, परिवार और जाति संबंधी पूर्वाग्रहों के सामना करते हुए सरपंच के रूप में कामकाज संभालना आसान नहीं है।

अभी क्षमतावान बनाने की आवश्यकता

वहीं, सभी राज्यों से जो समान कारण मिला, वह यह कि प्रभावी ढंग से कामकाज करने के लिए महिला जनप्रतिनिधियों को अभी और अधिक क्षमतावान बनाने की बहुत आवश्यकता है। इस अध्ययन के आधार पर समिति ने जो सुझाव दिए हैं, उनमें प्रमुखता से कहा है कि निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों के शासन और प्रबंधन संबंधी कौशल और क्षमता विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल करनी होगी।

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सोच में बदलाव लाने की जरूरत

शिक्षा व्यवस्था और सोच में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। स्कूल ऑफ प्रेक्टिस बनाकर सफल महिला जनप्रतिनिधियों से प्रशिक्षण दिलाया जाए।

प्रमुख सुझाव

  • सरपंच पति प्रथा खत्म करने के उद्देश्य से राज्यों के लिए आदर्श कानून का प्रारूप बनाया जाए।
  • क्या राज्य महिलाओं के लिए पंचायत सचिव पद पर 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू कर सकते हैं?
  • मैन्युअल उन सभी भाषाओं में बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे अशिक्षित महिलाएं भी समझ सकें।

भ्रष्टाचार भी एक बड़ी चुनौती

बिहार और राजस्थान में अध्ययन करते हुए समिति ने पाया है कि महिला सरपंच कई चुनौतियां महसूस करती हैं, उनमें भ्रष्टाचार भी एक प्रमुख है। दरअसल, उन्हें कई चेक पर हस्ताक्षर करने होते हैं, निविदाएं स्वीकृत करनी होती हैं, तब उन्हें अनजाने में भी हुई गलती के कारण जेल जाने का डर सताता है। ऐसे में वह अपने पति पर ही भरोसा करते हुए उन पर निर्भर रहने में सुरक्षित महसूस करती हैं।

लोगों ने प्रधान को चुना है, उसके परिवार को नहीं

2016 में एलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ नेअपने आदेश में स्पष्ट किया कि लोग प्रधान को चुनते हैं, उसके परिवार के लोगों को नहीं। पद की शपथ भी ग्राम प्रधान ही लेता है, उसके परिवार के सदस्य नहीं। जब शपथ उसने ली है, तो पंचायत के आधिकारिक कार्य व कर्तव्य भी उसी को निभाने होंगे।
प्रधान पद के प्रशासकीय व वित्तीय कार्य भी उसे ही करने होंगे, जिनमें ग्राम सभा का अकाउंट संचालित करना, प्रस्ताव पारित कराना, ग्राम सभा की भूमि की भू-प्रबंधन समिति के अध्यक्ष के तौर पर काम करना शामिल हैं।

ऐसा कोई कानून नहीं है जो यह कहता है कि यह सब कुछ ग्राम प्रधान का कोई रिश्तेदार कर सकता है। ऐसा होगा तो लोकतंत्र का पहला सिद्धांत ही खत्म हो जाएगा जो कहता है कि प्रत्यक्ष चुनाव जीते व्यक्ति में ही नागरिक अपनी इच्छा दर्शाते हैं।

हाईकोर्ट ने कहा कि ग्राम प्रधान के सभी कार्य उसके हस्ताक्षर से ही चलते हैं। इनकी जगह ‘प्रधानपति’, ‘प्रधानपिता’ या ‘प्रधानपुत्र’ को अनुमति नहीं दी जा सकती। जजों ने कहा कि मौजूदा मामला भी ऐसा ही है, जो इस किस्म की सोच को बढ़ावा देता है।

राजनीति में खुलकर आएंगी तभी मजबूत बनेंगी महिलाएं

हाईकोर्ट ने कहा कि कई बार महिला ग्राम प्रधान आरक्षित सीट से चुन कर आती है तो लोग उन्हें गृहिणी, अनपढ़ या किसी और वजह से उसे पद के लिए कमतर बताते हैं। इसी आधार पर पति द्वारा प्रधानी के काम किए जाने को जायज ठहराया जाता है।

हाईकोर्ट और देश का संविधान इस पूर्वाग्रह को नहीं मानता। किसी को महिला होने की वजह से कमजोर नहीं कहा जा सकता। यह सोच लैंगिक अन्याय को बढ़ावा देने वाली है। अगर महिला किसी लिहाज से पीछे है तब भी राजनीति में उनके खुलकर आने से लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। वे खुद भी मजबूत बनेंगी।

यह पुरातन पितृसत्तात्मक समाज की छाया को दूर करने के लिए जरूरी है। हाईकोर्ट ने कहा कि कई दशकों में महिलाओं के हालात में सुधार नहीं आया है। यह 1939 में प्रसिद्ध पत्रकार रजनी जी शहानी की लिखी पुस्तक ‘इंडियन पिलग्रिमेज’ के भाग ‘द ग्रैंड्यर एंड सर्विट्यूड ऑफ इंडियन वीमन’ और वर्तमान पत्रकार बरखा दत्त की पुस्तक ‘द यूनीक लैंड’ के भाग ‘प्लेस ऑफ वीमन’ में तुलना करके समझा जा सकता है।

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