एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के अस्वीकार करने पर उठाया सवाल

नई दिल्ली, BNM News। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल करने के लिए एएमयू एक्ट में 1981 में किए गए संशोधन को केंद्र सरकार द्वारा अस्वीकार करने पर सवाल उठाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानूनी संशोधन को सरकार कैसे अस्वीकार कर सकती है। सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सरकार यह कैसे कह सकती है कि वह संशोधन की वैधता को स्वीकार नहीं करती।

केंद्र की ओर से एक्ट में संशोधन को अस्वीकार करने पर की टिप्पणी

चीफ जस्टिस ने कहा कि वह ये नहीं सुन सकते कि संसद ने जो संशोधन किए हैं, उसे भारत सरकार स्वीकार नहीं करती। सरकार को संशोधन स्वीकार करना होगा। सरकार के पास विकल्प है कि वह चाहे तो संशोधन को बदल दे। लेकिन विधि अधिकारी यह नहीं कह सकते कि वह संसद द्वारा किए गए संशोधन को स्वीकार नहीं करते। कोर्ट ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद सर्वोच्च है। उसकी विधायी शक्ति सर्वोच्च है। वह जब चाहे कानून संशोधित कर सकती है। हालांकि, कोर्ट द्वारा केंद्र के रुख पर सवाल उठाए जाने पर सरकार की पैरोकारी कर रहे सालिसिटर जनरल तुषार मेहता लगातार कहते रहे कि वह यहां संविधान पीठ के समक्ष संवैधानिक सवालों का जवाब दे रहे हैं।

सरकार इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के साथ है और उसे सही मानती है, जिसमें हाई कोर्ट ने 1981 के एएमयू एक्ट में किए गए संशोधन को रद कर दिया था। मेहता ने कहा कि एक विधि अधिकारी होने के नाते उन्हें जो दृष्टिकोण सही प्रतीत होता है, वह कहना उनका अधिकार है। उन्होंने कोर्ट के समक्ष आपातकाल के दौरान किए गए कानूनी संशोधनों का हवाला भी दिया और कहा कि क्या विधि अधिकारी होने के चलते उन्हें उन संशोधनों को स्वीकार करना चाहिए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने उनकी दलीलें काटते हुए कहा, इसीलिए संविधान में 44वां संशोधन हुआ था और जो आपातकाल के दौरान हुआ था, उसे सुधारा गया।

मेहता ने कहा कि वह भी यही कह रहे हैं कि कोर्ट इस गलती को ठीक करे। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि आप हमारी ही बात सिद्ध कर रहे हैं कि गलती सुधारने की शक्ति निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संस्था के पास है। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे की मांग कर रहे ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि उन्हें याद है कि आपातकाल के दौरान वह तत्कालीन अटार्नी जनरल के साथ कोर्ट में थे। उस समय अटार्नी जनरल ने आपातकाल के समय किए गए संशोधनों का कोर्ट में बचाव किया था। सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ आजकल एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुनवाई कर रही है।

बुधवार को केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं साबित करने के लिए 1920 के एएमयू एक्ट और समय-समय पर उस कानून में किए गए संशोधनों का हवाला दिया। कहा कि 1951, 1965 और 1981 में विभिन्न संशोधन हुए थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ के फैसले में एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं मानने की दी गई व्यवस्था के बाद एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल करने वाले 1981 में हुए कानूनी संशोधन का हवाला दिया।

कहा कि ऐसा संशोधन उन्होंने पहली बार देखा है, जिसमें कानून की प्रस्तावना में संशोधन करके ऐतिहासिक तथ्य को ही बदल दिया गया है। 60 साल बाद ऐतिहासिक तथ्य बदल दिए गए। इस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि इसे दूसरे ढंग से भी देखा जा सकता है कि कानून की प्रस्तावना में संशोधन करके उसे ऐतिहासिक तथ्यों के अनुकूल किया गया है। तभी पीठ के दूसरे न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मेहता से सवाल किया कि 1981 का कानूनी संशोधन संसद ने किया था। आप उसे स्वीकार करते हैं कि नहीं?

मेहता ने जैसे ही नहीं में जवाब दिया, जस्टिस चंद्रचूड़ ने आपत्ति उठाते हुए उनसे सवालों की झड़ी लगा दी। कहा कि आप संसद द्वारा किए गए संशोधन को कैसे अस्वीकर कर सकते हैं? मामले में अगले मंगलवार को फिर बहस होगी। बुधवार को केंद्र सरकार ने कोर्ट द्वारा कल पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए बताया कि 1920 से 1950 तक एएमयू और बीएचयू दोनों को एक-एक लाख रुपये सालाना सरकारी मदद मिलती थी। कभी-कभी दो लाख की मदद भी मिलती थी। यह भी बताया कि इस समय एएमयू को 1,500 करोड़ की सालाना मदद मिलती है, जबकि 30-40 करोड़ वह फीस आदि से जुटाता है। कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि वह 1981 के कानून की वैधानिकता पर विचार करके फैसला देगा कि नहीं। आज कोर्ट ने पक्षकारों से विचार की चर्चा करते हुए इस संबंध में संकेत जरूर दिए।

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