किताब हमारे जीवन में निभाती है एक मित्र, सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका

अतुल मलिकराम
किताबें हमारे जीवन में एक मित्र, एक सलाहकार, एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाती हैं। इनके जरिये आप कल्पना की एक ऐसी दुनिया में पहुँच सकते हैं, जहाँ वास्तविक जीवन में जाना शायद मुमकिन ना हो। यह आपका शब्द भंडार तो बढ़ाती ही हैं और आपके विचारों को भी समृद्ध करती हैं।

जो काम तन के लिए भोजन करता है, वही काम मन के लिए किताबें करती हैं। यही कारण है कि मुझे किताबों से बेहद लगाव है। लेकिन आजकल के दौर में टेक्नोलॉजी ने जहाँ सुविधाएँ दी है वहीँ भावनात्मक जुड़ाव ख़त्म सा कर दिया है और यही किताबों के साथ भी हो रहा है। डिजिटाइजेशन के इस ट्रेंड ने किताबों को तो डिजिटल कर दिया है लेकिन किताबों की अहमियत को ख़त्म कर दिया है।
ऐसा नहीं है कि अब किताबें नहीं मिलती है, लेकिन डिजिटल किताबों और ई-बुक्स का चलन अब तेजी से बढ़ रहा है। चलन को देखते हुए, इस बात की टीस सी रहती है कि जो सम्बन्ध हमारा किताबों के साथ हुआ करता था, आगे आने वाली पीढ़ी उस भावनात्मक जुड़ाव का मोल नहीं जान पाएगी। आजकल की डिजिटल किताबों में शब्द तो है लेकिन उनका एहसास नहीं है। नई किताबों की वो महक और पन्ने दर पन्ने कल्पना की दुनिया के खुलते दरवाजे, एक अलग ही अनुभव देते थे। जो मजा पन्नों को पलटने में आता था वो स्वाइप करने में कहाँ…..।

आजकल तो ऑनलाइन का जमाना है घर बैठे ही किताबें मिल जाती है या ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध हो जाती है लेकिन पहले किसी भी किताब के लिए या तो लाइब्रेरी जाना पड़ता था, या दोस्तों से मांग कर पढ़ना पड़ता था उसका भी अपना ही अलग मजा था। किताबों के इस लेन-देन से रिश्ते बने रहते थे।

डिजिटल किताबों या ई-बुक्स का ये चलन किताबों की रूहानियत को ख़त्म कर ही रहा है उस पर आजकल ऑडियोबुक का एक नया चलन चल पड़ा है। ऑडियोबुक को सरल शब्दों में समझाऊँ तो सुनने वाली किताबें, मतलब बस आप ऑडियोबुक के एप में अपनी पसंदीदा किताब चुनिए और वह एप आपको उस किताब में लिखी सामग्री सुना देगा, जिनमें कोई भाव नहीं होता इसलिए इन किताबों से वो जुडाव नहीं बन पाता। मेरा मानना है कि हर पाठक का पढने का अपना तरीका और अपनी कल्पनाशक्ति होती है।

इन ऑडियोबुक्स ने शब्दों को पढ़ने के एहसास को ही ख़त्म कर दिया है। कहते हैं कि किसी लिखे हुए शब्द को ध्यान से पढ़ा जाए, तो वह आपके अवचेतन मन में दर्ज हो जाता है और इस तरह पढ़ी हुई वह चीज़ लम्बे समय तक याद रहती है। यही वजह है कि सालों पहले पढ़ी हुई किताब हमेशा के लिए एक एहसास बनकर मन में कहीं रह जाती है। शब्द चाहे याद ना भी रहें लेकिन किताब का सार हमेशा याद रहता है।

ऑडियोबुक को आप चाहें कितना भी मन लगाकर सुन लें लेकिन वो शब्द आपकी यादों में नहीं बस पाते क्योंकि सुना हुआ आप देर-सवेर भूल ही जाते हैं। एक लेखक होने के नाते मैं यह भी अच्छी तरह समझता हूँ कि हर लेखक चाहता है कि पाठक उसके अनुभवों और शब्दों की गहराई से वैसा ही जुडाव बना पाए जैसा उसने लिखते समय महसूस किया था, यह जुड़ाव असल किताबों से ज्यादा अच्छी तरह बन पाता है।

यही कारण है कि आज भी मैं किताब खरीदकर पढने में यकीन रखता हूँ। दुनिया चाहे कितनी भी आधुनिक हो जाए लेकिन कुछ चीजों का मजा उनके असल रूप में ही है। किताबों की इस स्थिति को देखते हुए मुझे प्रसिद्ध गीतकार गुलज़ार की एक नज्म की पंक्तियाँ याद आती है, जो मेरे इस लेख से काफी मेल खाती है गुलज़ार साहब लिखते हैं कि, “वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी मगर, वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक्के, किताबें माँगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे, उनका क्या होगा, वो शायद अब नहीं होंगे…..!”

इसलिए पढ़ने का सुखद अनुभव लेना हो तो किताबों को असल रूप में ही खरीद कर पढ़ें इससे आप लेखक के हर भाव से ज्यादा गहराई से जुड़ पाएँगे और उसके अनुभवों को अपने जीवन में शामिल कर पाएँगे ….

(लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

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