Haryana Politics: हरियाणा कांग्रेस में सियासी भूचाल, कांग्रेस विधायक ने अशोक तंवर पर लगाए गंभीर आरोप, जारी किया ऑडियो

गोकुल सेतिया और अशोक तंवर। फाइल
नरेंद्र सहारण, चंडीगढ़/सिरसा: Haryana Politics: राजनीति में निष्ठा और विश्वास वे स्तंभ हैं जिन पर किसी भी दल की इमारत टिकी होती है। लेकिन जब इन स्तंभों में भीतरघात की दीमक लग जाए, तो सबसे मजबूत किले भी दरकने लगते हैं। हरियाणा कांग्रेस इन दिनों कुछ ऐसे ही सियासी भूचाल से गुजर रही है, जिसकी धमक सिरसा से उठी और चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक महसूस की गई। सिरसा के कांग्रेस विधायक गोकुल सेतिया ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो ‘ऑडियो बम’ फोड़ा है, उसने पार्टी के भीतर सुलग रही चिंगारी को आग में तब्दील कर दिया है। उनके निशाने पर हैं पार्टी के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष और हाल ही में भाजपा से घर वापसी करने वाले अशोक तंवर। सेतिया का आरोप सीधा, गंभीर और कांग्रेस की जड़ों को हिला देने वाला है – कि विधानसभा चुनावों के दौरान अशोक तंवर ने कांग्रेस प्रत्याशी की ‘गोबी खोदकर’ हरियाणा लोकहित पार्टी के प्रमुख गोपाल कांडा का समर्थन किया।
यह घटनाक्रम केवल दो नेताओं के बीच का व्यक्तिगत टकराव नहीं है, बल्कि यह हरियाणा कांग्रेस के उस गहरे रोग का लक्षण है, जिसे ‘गुटबाजी’, ‘अवसरवादिता’ और ‘दिल्ली दरबार’ की संस्कृति के नाम से जाना जाता है। इस विवाद ने एक बार फिर उन असहज सवालों को सतह पर ला दिया है, जिनसे कांग्रेस नेतृत्व अक्सर बचता नजर आता है।
आरोपों की बौछार और रहस्यमयी ऑडियो क्लिप
विधायक गोकुल सेतिया जब मीडिया के सामने आए तो उनके तेवर बेहद तल्ख थे। उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के अशोक तंवर पर सीधा हमला बोला। उन्होंने कहा, “पार्टी अभी भी कुछ ऐसे नेताओं की पहचान नहीं कर पाई है, जिन्होंने पार्टी की गोबी खोदने (जड़ें काटने) का काम किया है। और विडंबना देखिए, हमारे नेता राहुल गांधी जी इन्हीं लोगों को विशेष रूप से बुलाते हैं और अपनी स्टेज पर बैठाते हैं।”
अपने आरोपों को पुख्ता करने के लिए सेतिया ने एक ऑडियो क्लिप भी चलाया। उन्होंने दावा किया कि इस क्लिप में अशोक तंवर कांग्रेस के किसी कार्यकर्ता से बात करते हुए सिरसा में कांग्रेस उम्मीदवार के बजाय गोपाल कांडा के लिए वोट करने की अपील कर रहे हैं। (हालांकि, इस ऑडियो क्लिप की प्रामाणिकता की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन इसने राजनीतिक गलियारों में तूफान ला दिया है)।
इस मामले में किरदारों की प्रतिक्रियाएं भी कम दिलचस्प नहीं हैं। जब आरोपों के केंद्र में मौजूद अशोक तंवर से इस बारे में सवाल किया गया, तो उन्होंने सिर्फ दो शब्द कहे – “नो कमेंट्स।” राजनीति में अक्सर चुप्पी सवालों को दबाने के बजाय उन्हें और गहरा कर देती है। वहीं, गोपाल कांडा के भाई गोबिंद कांडा ने आरोपों का खंडन तो किया, लेकिन एक ऐसी दलील के साथ जो अनजाने में सेतिया के दावों को मजबूत करती नजर आई। गोबिंद कांडा ने कहा, “ऐसा कुछ नहीं है। यह झूठ है। उस समय अशोक तंवर बीजेपी में थे, इसलिए उन्होंने गोपाल कांडा के लिए वोट मांगे।” यह बयान अपने आप में एक विरोधाभास है। एक तरफ यह सेतिया के दावे को ‘झूठ’ बता रहा है, तो दूसरी तरफ यह स्वीकार भी कर रहा है कि तंवर ने कांडा के लिए वोट मांगे थे, बस उसका आधार उनकी तत्कालीन पार्टी (भाजपा) को बताया जा रहा है। कांग्रेस के लिए यह दलील और भी घातक है, क्योंकि यह साबित करती है कि तंवर ने कांग्रेस उम्मीदवार को हराने के लिए काम किया था, चाहे वह किसी भी पार्टी में रहे हों।
पुरानी दुश्मनी और सम्मान की लड़ाई
गोकुल सेतिया का गुस्सा केवल एक चुनावी घटना तक सीमित नहीं है। उनकी नाराजगी की जड़ें काफी गहरी हैं और अशोक तंवर के प्रदेशाध्यक्ष कार्यकाल (2014-2019) तक जाती हैं। सेतिया ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में तीन मुख्य बातें कहीं, जो उनके दर्द और गुस्से को बयां करती हैं:
धोखा और पाखंड: सेतिया ने सवाल उठाया कि अगर तंवर को वापस कांग्रेस में ही आना था तो उन्होंने चुनाव में कांग्रेस को नुकसान क्यों पहुंचाया? उन्होंने कहा, “अगर रातों-रात डैमेज कर दिया और कांग्रेस जॉइन करने का मूड बन गया था तो अगले दिन डैमेज कंट्रोल कर लेते। मेरे से क्या लड़ाई या दुश्मनी थी?” उनका इशारा साफ है कि तंवर की निष्ठा हमेशा संदिग्ध रही है।
पुराने कांग्रेसियों की उपेक्षा: सेतिया ने आरोप लगाया कि तंवर ने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में हरियाणा के तमाम पुराने और पारंपरिक कांग्रेसी परिवारों को दरकिनार करने का काम किया। उन्होंने कहा, “जब अशोक तंवर सिरसा से लोकसभा का चुनाव लड़े, तब भी हमने डटकर इनकी मदद की। इसके बाद उन्होंने जितने पुराने कांग्रेसी थे, उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। चाहे वो मेरी फैमिली के हों, केवी सिंह की फैमिली हो, भरत सिंह की फैमिली हो या फिर चौधरी रणजीत सिंह की फैमिली हो।”
अपमान और पार्टी छोड़ने की मजबूरी: उन्होंने तंवर की कार्यशैली पर हमला बोलते हुए कहा, “सबके साथ इन्होंने (अशोक तंवर) ये प्रयास किया कि इनको जो लोग काटने वाले हैं, उनको पहले खत्म करें। बेइज्जती कोई नहीं सहेगा, खासकर जब बात अपने बुजुर्गों की हो।” सेतिया ने यह भी खुलासा किया कि तंवर के व्यवहार से तंग आकर उन्होंने दिल्ली में राहुल गांधी से मिलने की कोशिश की थी, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हुई, जिसके चलते उन्हें मजबूरन पार्टी छोड़नी पड़ी थी। यह बताता है कि सेतिया और तंवर के बीच का विवाद व्यक्तिगत सम्मान और राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई भी है, जो अब खुलकर सामने आ गई है।
अशोक तंवर का राजनीतिक सफर: ‘आया राम, गया राम’ की मिसाल
इस विवाद को समझने के लिए अशोक तंवर के राजनीतिक ग्राफ को देखना जरूरी है। तंवर की राजनीति का उदय कांग्रेस में राहुल गांधी के करीबी और चहेते नेता के रूप में हुआ। इसी निकटता के कारण उन्हें युवावस्था में ही हरियाणा जैसे जटिल राज्य का प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया। उनकी पत्नी अवंतिका तंवर कांग्रेस के दिग्गज नेता अजय माकन की बहन और पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की नातिन हैं जिससे उनका दिल्ली दरबार में प्रभाव और भी मजबूत हुआ।
लेकिन हरियाणा की जमीनी राजनीति दिल्ली के समीकरणों से अलग चलती है। प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर तंवर का कार्यकाल पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा गुट के साथ निरंतर टकराव और संघर्ष में बीता। 2016 में दिल्ली में एक रैली के दौरान हुड्डा और तंवर समर्थकों के बीच हुई हिंसक झड़प ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया। तंवर पर हमेशा यह आरोप लगा कि वह संगठन खड़ा करने में नाकाम रहे। 2019 के विधानसभा चुनाव में जब टिकट वितरण में उनकी नहीं चली, तो उन्होंने अपमान का आरोप लगाते हुए न केवल पद से इस्तीफा दिया, बल्कि कांग्रेस पार्टी भी छोड़ दी।
इसके बाद तंवर ने आम आदमी पार्टी में गए, फिर तृणमूल कांग्रेस में गए और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने उन्हें सिरसा लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया लेकिन विडंबना देखिए उन्हें कांग्रेस की उम्मीदवार कुमारी सैलजा के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। लोकसभा चुनाव में हार के बाद और हरियाणा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, तंवर ने एक बार फिर पाला बदला और कांग्रेस में ‘घर वापसी’ कर ली। उनका यह सफर राजनीतिक अवसरवादिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है और यही कारण है कि कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा उनकी वापसी और उन्हें मिल रही तरजीह से नाराज है।
‘दिल्ली दरबार’ का दखल और राहुल गांधी फैक्टर
गोकुल सेतिया के गुस्से का तात्कालिक कारण बना चंडीगढ़ में हुई कांग्रेस की एक अहम बैठक। 4 जून को राहुल गांधी ने हरियाणा के नेताओं और पर्यवेक्षकों की एक बैठक बुलाई थी। इस बैठक के लिए जो सूची तैयार की गई थी, उसमें शुरुआत में अशोक तंवर का नाम नहीं था। लेकिन, कथित तौर पर ‘दिल्ली दरबार’ के हस्तक्षेप से रातों-रात उनका नाम सूची में जोड़ा गया और बैठक के दौरान वह राहुल गांधी के साथ मंच पर मौजूद रहे।
इसी घटना ने सेतिया जैसे नेताओं के सब्र का बांध तोड़ दिया। उनका मानना है कि एक ऐसा नेता जिसने पार्टी छोड़ी, विरोधी दल में जाकर चुनाव लड़ा, कांग्रेस को हराने का काम किया, उसे फिर से पार्टी में इतना सम्मान क्यों दिया जा रहा है? यह घटना कांग्रेस की उस पुरानी समस्या को उजागर करती है, जहां केंद्रीय नेतृत्व अक्सर जमीनी हकीकत और स्थानीय कार्यकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज कर व्यक्तिगत निष्ठाओं के आधार पर फैसले लेता है। राहुल गांधी का तंवर को तरजीह देना शायद गुटबाजी को संतुलित करने या किसी पुरानी वफादारी को निभाने की एक कोशिश हो सकती है, लेकिन इसने पार्टी के भीतर एक नए और शक्तिशाली असंतोष को जन्म दे दिया है।
खुद से लड़ती कांग्रेस और भविष्य की चुनौतियां
सिरसा से उठी यह चिंगारी हरियाणा कांग्रेस के लिए एक बड़ी चेतावनी है। यह विवाद सिर्फ गोकुल सेतिया बनाम अशोक तंवर नहीं है, बल्कि यह कई गंभीर मुद्दों का प्रतिबिंब है:
भीतरघात की संस्कृति: पार्टी के भीतर रहकर अपने ही उम्मीदवार को हराने की प्रवृत्ति कांग्रेस को लगातार कमजोर कर रही है।
गुटबाजी का नासूर: हुड्डा बनाम एसआरके (सैलजा, रणदीप, किरण) गुट की लड़ाई पहले से ही चरम पर थी, अब तंवर की वापसी ने इस समीकरण को और भी जटिल बना दिया है।
वैचारिक संकट: नेताओं का बार-बार दल बदलना (“आया राम, गया राम”) पार्टी की विचारधारा और कार्यकर्ताओं की निष्ठा पर सवाल खड़े करता है।
हाईकमान का फैसला: जब तक केंद्रीय नेतृत्व स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान नहीं करेगा, तब तक ऐसे विद्रोह होते रहेंगे।
गोकुल सेतिया का विद्रोह उस मौन पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति है जो कांग्रेस के कई जमीनी कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस नेतृत्व इस चेतावनी को सुनेगा? क्या वह भीतरघात और अवसरवादिता की राजनीति पर लगाम लगाएगा? या फिर वह इसे एक और ‘पारिवारिक मामला’ मानकर कालीन के नीचे दबा देगा? हरियाणा में कांग्रेस अगर वास्तव में भाजपा को चुनौती देना चाहती है, तो उसे पहले अपने घर के भीतर चल रही इस लड़ाई को खत्म करना होगा, वरना यह आग पूरी इमारत को अपनी चपेट में ले सकती है।