जानें कैसे रेखा भारद्वाज बनी ‘नमक इश्क का’ से लेकर शरारती आवाज की पहचान तक

मुंबई, बीएनएम न्यूज। भारतीय सिनेमा का इतिहास विविधताओं से भरा पड़ा है। इस इतिहास में आइटम सांग का स्थान विशेष है,यह एक ऐसा संगीत परिदृश्य जो मनोरंजन के साथ-साथ फिल्मों में तड़का लगाने का काम करता है। यह परंपरा शुरुआत से ही विवादों और चर्चाओं का विषय रही है। कुछ लोग इसे फिल्म की मनोरंजकता का हिस्सा मानते हैं तो वहीं कुछ इसे अश्लीलता और असामाजिकता का प्रतीक भी मानते हैं।
इस परंपरा में एक नाम जो लगातार अपनी राय और अनुभव के जरिए इस विषय को समझाने का प्रयास कर रहे हैं, वह हैं प्रसिद्ध गायिका और कलाकार रेखा भारद्वाज। उन्होंने अपने अनुभव, विचार और कला के प्रति अपने दृष्टिकोण को साझा किया है। 2006 में प्रदर्शित फिल्म ओमकार के आइटम सांग नमक इश्क का… के बाद उन्हें अपनी कला और क्षमता का सही परिचय मिला।
हाल ही में एक इंटरव्यू में रेखा भारद्वाज ने अपने जीवन, कला, आइटम सांग और भारतीय संस्कृति में इन गानों की भूमिका पर बातें कीं। उन्होंने अपने अनुभवों के माध्यम से बताया कि कैसे उन्होंने अपने शरारती पहलू को फिर से संजोया और अपने कला के प्रति जोश जागरूक किया। साथ ही, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आइटम सांग का मतलब ओछापन या अश्लीलता नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का हिस्सा है।
रेखा भारद्वाज का परिचय और उनका कला सफर
रेखा भारद्वाज एक प्रसिद्ध गायिका, संगीतकार और कलाकार हैं, जिनका संगीत और आवाज़ भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। उनका जन्म और पालन-पोषण संगीत प्रेमी परिवार में हुआ, और उन्होंने अपने जीवन में संगीत के प्रति गहरा लगाव विकसित किया। उनका करियर कई दशकों का है, जिसमें उन्होंने पारंपरिक भारतीय संगीत से लेकर आधुनिक फिल्मी गानों तक, विभिन्न विधाओं में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। रेखा भारद्वाज का नाम केवल एक गायिका के रूप में ही नहीं, बल्कि एक विचारक और संस्कृति के संवाहक के रूप में भी जाना जाता है।
उनका मानना है कि संगीत और कला का उद्देश्य न केवल मनोरंजन है, बल्कि यह समाज की मानसिकता, संस्कृति और मूल्यों को भी प्रतिबिंबित करने का माध्यम है। इसी सोच के साथ, उन्होंने अपने जीवन में कई बार उस सीमा को पार किया है, जो परंपरागत सोच और आधुनिकता के बीच झूलती रही है।
आइटम सांग का इतिहास और सामाजिक संदर्भ
आइटम सांग का इतिहास भारतीय सिनेमा में बहुत पुराना है। यह परंपरा 20वीं सदी के मध्य से शुरू हुई, जब फिल्मों में नृत्य, गीत और नाटकीयता का समागम हुआ। इस गाने का उद्देश्य मुख्य कहानी के अलावा दर्शकों की रुचि बढ़ाना और फिल्म को मसालेदार बनाना था।
हालांकि, समय के साथ इन गानों में बदलाव आया है। आज के दौर में आइटम सांग का स्वरूप अधिक ग्लैमर, सेक्सीनेस और प्रमोशन का प्रतीक बन गया है। कुछ लोग इसे फिल्म उद्योग का एक आवश्यक हिस्सा मानते हैं, तो वहीं कुछ इसे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ मानते हैं।
सामाजिक संदर्भ में देखा जाए तो, आइटम सांग का विवाद हमेशा से ही रहा है। कुछ का तर्क है कि ये गाने महिलाओं को वल्गर रूप में प्रस्तुत करते हैं, तो वहीं कुछ का मानना है कि यह कला का एक स्वतंत्र रूप है।
गायकी की यात्रा
रेखा भारद्वाज का संगीत में सफर बचपन से ही शुरू हो गया था। उन्होंने छह साल की उम्र में गायन शुरू किया और शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षण लिया। उनका मानना है कि शास्त्रीय संगीत की नींव ने उनकी गायकी को मजबूती दी। फिल्म इंडस्ट्री में उनकी शुरुआत 1997 में फिल्म ‘चाची 420’ के गाने ‘एक वो दिन’ से हुई थी। लेकिन ‘नमक इश्क का’ के बाद उनकी पहचान एक सशक्त गायिका के रूप में बनी।
संगीत के प्रति समर्पण
रेखा भारद्वाज का कहना है, “मेरे पास केवल जो जुनून था, वह ‘रियाज’ में मिला था।” उनका मानना है कि संगीत से बड़ा कोई नशा नहीं है और यह उन्हें मानसिक शांति और संतुलन प्रदान करता है। उन्होंने कहा, “मैं अपनी सारी निराशा गायन के माध्यम से निकालती हूं।”
2006 का मील का पत्थर
रेखा भारद्वाज का मानना है कि, “साल 2006 में प्रदर्शित फिल्म ओमकार के आइटम सांग नमक इश्क का… के बाद उन्हें अपनी प्रतिभा का सही एहसास हुआ। यह उनके लिए एक नई शुरुआत थी, जिसने उन्हें अपनी कला को फिर से परखने और निखारने का अवसर दिया।”
उनके अनुसार, उस समय उन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं था कि वह इस तरह के गाने गा सकती हैं। लेकिन उनके पति, फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया। एक रात, विशाल ने उन्हें गाने की रिकॉर्डिंग सुनाई और कहा कि यह गाना सिर्फ वही गा सकती हैं। उस पल से, रेखा ने अपने अंदर छुपे शरारती पहलू को फिर से संजोया।
आइटम सांग का सांस्कृतिक महत्त्व
रेखा का मानना है कि आइटम सांग का मतलब ओछापन या अश्लीलता नहीं है बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक रूप है। उन्होंने कहा, “यह जरूरी नहीं कि गाना कामुक हो और फिर भी गरिमा से रहित हो। लता जी का गीत ओ जाने जान… इसी की सच्चाई का उदाहरण है। ऐसे गाने शालीनता और गरिमा दोनों को बनाए रख सकते हैं।”
उनका यह भी तर्क है कि जब हम भारतीय संस्कृति और परंपरा को देखते हैं, तो हमें पता चलता है कि हमारे पारंपरिक गीत और नृत्य भी शालीनता और गरिमा के साथ अभिव्यक्त होते हैं। इसलिए, आइटम सांग का अर्थ ओछापन या अश्लीलता नहीं, बल्कि कला और संस्कृति का अभिव्यक्ति का एक प्रकार है।
कला, आत्मविश्वास और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति
रेखा भारद्वाज ने अपने अनुभवों से सीखा है कि अपने कला के प्रति विश्वास और साहस जरूरी है। जब उन्हें पहली बार नमक इश्क का… गाने का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने इसे स्वीकार करने में संकोच किया। लेकिन अपने पति के प्रोत्साहन और अपने भीतर के कलाकार के विश्वास से, उन्होंने अपने आप को फिर से खोजा। उनका कहना है कि हर कलाकार को अपने अंदर के शरारती और रचनात्मक पहलू को स्वीकार करना चाहिए। यह कला का एक स्वाभाविक हिस्सा है, जो हमें पूर्णता और आत्मविश्वास प्रदान करता है।
आइटम सांग और गरिमा का मेल
उनका यह भी तर्क है कि आइटम सांग का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी गरिमा को गिराएं। बल्कि, यह कला का एक रूप है, जो सही ढंग से किया जाए तो गरिमा और शालीनता दोनों बनाए रख सकता है।
भारतीय संस्कृति में गानों का स्थान
रेखा का मानना है कि भारतीय संगीत और नृत्य का इतिहास बहुत पुराना और समृद्ध है। “लता जी का गीत ओ जाने जान… इसका उदाहरण है कि कैसे एक गाना गरिमा और शालीनता के साथ कामुकता का अनुभव कर सकता है।
वह कहती हैं, “आइटम सांग का मतलब यह नहीं है कि हम ओछे विचारों को बढ़ावा दें। यह तो हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का हिस्सा है। जब हम अपने परंपरागत गीतों को देखते हैं, तो पाएंगे कि उनमें भी शालीनता और गरिमा का मेल है। यह हमारे समाज की विविधता और सुंदरता को दर्शाता है।” उनके मुताबिक, कला और संस्कृति का उद्देश्य समाज में सौंदर्य, प्रेम, उत्साह और सामाजिक संदेश फैलाना है। इसलिए, आइटम सांग भी इस संदर्भ में अपनी जगह रखता है।
निष्कर्ष और विचार
रेखा भारद्वाज का जीवन और अनुभव हमें यह सिखाते हैं कि कला, आत्मविश्वास और संस्कृति का मेल ही सच्चा कला है। अपने कला के प्रति विश्वास और अपने मूल्यों को बनाए रखते हुए, कलाकार समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। उनका यह भी मानना है कि आइटम सांग का मतलब ओछापन या अश्लीलता नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक और मनोरंजक अभिव्यक्ति का एक स्वाभाविक भाग है। जब इसे गरिमा और शालीनता के साथ किया जाए, तो यह फिल्म का एक सशक्त हिस्सा बन जाता है।
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