वृद्ध दिवस पर विशेष : टूट गयी बुढ़ापे की लाठी, वृद्धाश्रमों की बढ़ती जा रही संख्या
लखनऊ, बीएनएम न्यूज । भारतीय संस्कृति में पुत्र को बुढ़ापे की लाठी कहा गया है अर्थात पुत्र ही बुजुर्ग होने पर सहारा होता है, लेकिन विकृत होती संस्कृति में लाठी टूटती जा रही है। कुछ तो अर्थ युग की मजबूरी और कुछ पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण के कारण बुजुर्ग बेसहारा होते जा रहे हैं। तभी तो आज पूरे प्रदेश के सभी जिलों में राज्य सरकार को 75 वृद्धाश्रम खोलने पड़े हैं, जिनमें 6400 वृद्ध आश्रय लिये हुए हैं।
भारत सरकार ने यूपी में 24 वृद्धाश्रम खोले
यहीं नहीं, इसके अलावा भारत सरकार ने भी प्रदेश में 24 वृद्धाश्रम खोल रखे हैं, जिसमें 850 वृद्ध आश्रय लिए हुए हैं। इनमें वृद्धों की संख्या समय-समय पर कम अधिक होती रहती है, लेकिन साल दर साल इसमें वृद्धि होती जा रही है, जो चिंता का विषय है। इन वृद्धाश्रमों में ही हर साल लगभग पांच सौ वृद्ध दम तोड़ देते हैं। उसमें आधे से अधिक वृद्धों के परिजन तो सूचना देने पर भी उनके शव नहीं ले जाते और वृद्धाश्रम संचालक ही उनका दाह संस्कार करते हैं।
इस संबंध में वृद्धाश्रमों की व्यवस्था देख रहे समाज कल्याण विभाग के उपनिदेशक कृष्णा प्रसाद का कहना है कि बहुत लोग तो यहां की व्यवस्था से प्रभावित होकर यहां रहना पसंद करते हैं, लेकिन कुछ बुजुर्ग ऐसे भी हैं, जो मजबूरी के कारण वृद्धाश्रमों का सहारा लेते हैं और वहीं आकर रह जाते हैं।
मजबूरी में ही वृद्धाश्रमों का सहारा
कृष्णा प्रसाद के इस बयान से इतर अधिकांश लोग मजबूरी में ही वृद्धाश्रमों का सहारा लेते हैं, इस संबंध में समाजसेवी अजीत सिंह का कहना है कि सिर्फ अर्थ के चक्कर में हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। यही कारण है कि आज हमें बुजुर्ग दिवस कि जरूरत पड़ रही है। वरना पहले यह स्थिति थी कि बुजुर्गों के आदेश के बिना घर का एक पत्ता भी नहीं हिलता था।
वृद्धाश्रम में महसूस करते हैं ज्यादा आराम
कौशांबी वृद्धाश्रम के संचालक आलोक कुमार राय ने बताया कि हमारे यहां इस समय 53 बुजुर्ग हैं। इसमें कई लोगों के पुत्र हैं, लेकिन बुजुर्ग वृद्धाश्रम में खुद को ज्यादा आराम महसूस करते हैं और यहां पर वे एक परिवारिक सदस्य के रूप में घुल-मिल गये हैं। यह बता दें कि एक अक्टूबर को बुजुर्गों के सम्मान में अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस मनाया जाता है।
बुजुर्गों के सम्मान में कमी
इस संबंध में श्रम न्यायालय लखनऊ के पीठासीन अधिकारी बी.के. राय का कहना है कि अब हमें स्कूली शिक्षा से ज्यादा जरूरी अपनी संस्कृति की शिक्षा है। बच्चों को पहले संस्कार दिया जाए, इसके बाद स्कूली शिक्षा दिया जाए। पहले स्कूलों में नैतिक शिक्षा की एक किताब भी पढ़ाई जाती थी, लेकिन आज वह भी हटा दी गयी है। यही कारण है कि आज हम पाश्चात्य संस्कृति की गिरफ्त में आते जा रहे हैं और हमारे बुजुर्गों का सम्मान कम होता जा रहा है।
बुढ़ापे की लाठी बनी रहे
जल परी के नाम से पानी संचयन पर काम करने वाले बुंदेलखंड में प्रसिद्ध समाजसेवी संजय सिंह का कहना है कि समाज में लोग अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। आत्मकेंद्रित समाज होता जा रहा है, जिससे आज वृद्धाश्रमों का सहारा लेना पड़ रहा है। आज आवश्यकता है कि हम बच्चों को अपनी संस्कृति का भान कराएं और उन्हें भारतीय समाज की परंपराओं को बताएं, जिससे बुढ़ापे की लाठी बनी रहे।
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