कैथल के एक गांव को खाली करने के आदेश: ASI ने नोटिस भेजा, उसे देख महिला की हार्ट अटैक से मौत

कैथल का गांव पोलड़ काे नोटिस दिया गया है।

नरेन्‍द्र सहारण, कैथल: Kaithal News: हरियाणा के कैथल जिले में कैथल-पटियाला रोड पर सीवन कस्बे के पास स्थित एक छोटा सा गांव पोलड़ इन दिनों अपने शांत ग्रामीण अस्तित्व से कहीं अधिक अपने पौराणिक अतीत और उससे उपजे एक भयावह वर्तमान संकट के लिए चर्चा में है। यह वही भूमि है जिसे जनश्रुतियां और कुछ इतिहासकार रावण के दादा पुलस्त्य मुनि की तपोस्थली और स्वयं रावण की जन्मस्थली होने का गौरव प्रदान करते हैं। सदियों की धूल और किंवदंतियों की परतों में दबी इसी ऐतिहासिक विरासत को उजागर करने की मंशा से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) ने गांव में खुदाई करने का निर्णय लिया है। लेकिन एएसआई की यह पुरातात्विक जिज्ञासा गांव के 206 परिवारों के लिए उनके पुश्तैनी आशियानों से बेदखली का फरमान लेकर आई है, जिससे पूरे गांव में तनाव, भय और अनिश्चितता का माहौल व्याप्त हो गया है। इस संकट की गंभीरता तब और बढ़ गई जब गांव खाली करने का अदालती नोटिस मिलने के बाद कथित तौर पर तनाव के चलते एक 65 वर्षीय महिला गुरमीत कौर ने हृदय गति रुक जाने से दम तोड़ दिया। यह घटना पोलड़ गांव की कहानी को केवल ऐतिहासिक धरोहर और प्रशासनिक कार्रवाई के द्वंद्व से कहीं आगे ले जाकर मानवीय त्रासदी और विस्थापन के दर्द से जोड़ देती है।

पोलड़ गांव: जहां किंवदंतियां सांस लेती हैं

 

कैथल का पोलड़ गांव पहली नजर में हरियाणा के किसी भी अन्य आम गांव जैसा ही प्रतीत हो सकता है – खेतों से घिरे घर, पगडंडियों पर दौड़ते बच्चे और चौपालों पर हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग। लेकिन इस गांव की मिट्टी में कई अनकही कहानियां और पौराणिक संदर्भ दबे होने का दावा किया जाता है। ग्रामीणों की गहरी आस्था है कि यह स्थान किसी समय महान ऋषि पुलस्त्य मुनि का पवित्र तपोवन था, जहां उन्होंने मां सरस्वती के तट पर स्थित इक्षुपति तीर्थ पर घोर तपस्या की थी। इन्हीं पुलस्त्य मुनि के पौत्र थे लंकापति रावण जिनका बचपन भी इसी भूमि पर बीता कहा जाता है।

गांव में आज भी एक प्राचीन सरस्वती मंदिर और सदियों पुराना शिवलिंग विद्यमान है, जिनका संबंध सीधे पुलस्त्य मुनि के काल से जोड़ा जाता है। नागा साधु महंत देवीदास इस मंदिर की देखरेख करते हैं और बताते हैं कि मंदिर का निर्माण महंत राघवदास ने एक स्वप्न के आधार पर करवाया था। इतिहासकारों, जैसे प्रोफेसर बीबी भारद्वाज का भी मानना है कि पोलड़ एक प्राचीन नगर हुआ करता था जो संभवतः किसी प्राकृतिक आपदा के कारण उजड़ गया और बाद में जब इसे पुनः बसाया गया तो इसका नाम ‘थेह पोलड़’ पड़ा – ‘थेह’ उस स्थान को इंगित करता है जहां कभी कोई समृद्ध बस्ती रही हो। गांव में एक पुराना आश्रम भी है, जिसे रावण के पूर्वजों का बताया जाता है। इन्हीं मान्यताओं और अवशेषों के बीच पोलड़ के निवासी पीढ़ियों से अपना जीवनयापन करते आए हैं उनके लिए यह सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि उनकी पहचान और आस्था का केंद्र है।

एएसआई का पुरातत्विक आग्रह

 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) देश की समृद्ध पुरातात्विक धरोहर की खोज, संरक्षण और अध्ययन के लिए जिम्मेदार शीर्ष संस्था है। एएसआई का मानना है कि पोलड़ गांव की भूमि, विशेषकर वह क्षेत्र जहां वर्तमान में घर बने हुए हैं, अपने गर्भ में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और पुरातात्विक अवशेष छिपाए हुए हो सकती है। विभाग को लगता है कि यदि यह स्थल वास्तव में रावण के दादा की तपोस्थली और रावण के आरंभिक जीवन से जुड़ा है, तो यहां से प्राप्त होने वाली वस्तुएं भारतीय महाकाव्यों और प्राचीन इतिहास की कड़ियों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन संभावित पुरावशेषों को संरक्षित करना और उनका अध्ययन करना राष्ट्रीय महत्व का कार्य है, और इसी उद्देश्य से एएसआई ने गांव में व्यापक खुदाई करने की योजना बनाई है।

विभाग ने अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा लिया है और ग्रामीणों को अदालत के माध्यम से नोटिस भेजे हैं, जिसमें उन्हें जल्द से जल्द गांव खाली करने का निर्देश दिया गया है। एएसआई का तर्क है कि पुरातात्विक खुदाई के लिए भूमि का निर्बाध उपलब्ध होना आवश्यक है, और मौजूदा रिहायशी ढांचे इस प्रक्रिया में बाधक हैं।

विस्थापन का दंश: पोलड़ के ग्रामीणों की व्यथा और तर्क

 

गुरुवार 15 मई 2025 का दिन पोलड़ गांव के निवासियों के लिए एक काला दिन बनकर आया, जब एएसआई द्वारा भेजे गए अदालती नोटिस उन्हें मिलने शुरू हुए। गांव के कुल २०६ घरों को यह फरमान मिला कि वे अपने घरों को खाली कर दें। यह खबर गांव में जंगल की आग की तरह फैली और हर चेहरे पर चिंता और भय की लकीरें गहरा गईं। ग्रामीणों का कहना है कि वे और उनके पूर्वज यहां भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय से रह रहे हैं। दशकों से जिस जमीन को वे अपना घर और अपनी कर्मभूमि मानते आए हैं, उसे छोड़ने का विचार ही उनके लिए असहनीय है।

समस्या को लेकर गुहला के विधायक देवेंद्र हंस के पास पहुंचे ग्रामीण।

ग्रामीणों के पास अपने पक्ष में कई तर्क हैं

 

पूर्व की निष्फल खुदाइयां: ग्रामीण श्रवण कुमार, दिलबाग सिंह, सुनील सिंह और जगजीत सिंह जैसे कई ग्रामीण बताते हैं कि एएसआई द्वारा गांव में यह पहली खुदाई का प्रयास नहीं है। उनके बुजुर्गों के अनुसार, सबसे पहले 1833 में यहां खुदाई हुई थी। उसके बाद 1960  के आसपास और हाल ही में 2013  में भी एएसआई ने खुदाई की, लेकिन तीनों ही बार उन्हें कोई महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री बरामद नहीं हुई। ग्रामीणों का सवाल है कि जब पिछली तीन खुदाइयों में कुछ नहीं मिला, तो अब ऐसी क्या नई जानकारी या आधार है कि पूरे गांव को उजाड़ने पर जोर दिया जा रहा है?

पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं: ग्रामीणों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि एएसआई उन्हें उनके घरों से तो निकाल रहा है, लेकिन उन्हें कहीं और बसाने या उनके पुनर्वास की कोई ठोस योजना या प्रस्ताव नहीं दिया गया है। वे पूछते हैं कि अगर उन्हें यहां से उजाड़ दिया गया तो वे अपने परिवारों के साथ कहां जाएंगे, उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा?

भावनात्मक और सांस्कृतिक जुड़ाव: यह भूमि उनके लिए सिर्फ ईंट-गारे का मकान नहीं, बल्कि उनकी पीढ़ियों की यादें, उनकी संस्कृति और उनकी आस्था से जुड़ी हुई है। इस तरह का विस्थापन न केवल भौतिक बल्कि गहरा भावनात्मक आघात भी पहुंचाता है।

पूर्व सूचनाओं का अनुभव: ग्रामीणों का यह भी कहना है कि इस प्रकार के नोटिस उन्हें पहले भी साल 2018- 19  में मिल चुके हैं। हालांकि, उस समय कोरोना महामारी के प्रकोप के कारण यह मामला अधिक तूल नहीं पकड़ पाया था और उन पर दबाव नहीं बनाया गया था। लेकिन अब, जब स्थिति सामान्य हो गई है, तो उन्हें डर है कि इस बार कार्रवाई अधिक कठोर हो सकती है।

गुरमीत कौर की हृदयविदारक मृत्यु

 

एएसआई के नोटिस से उपजा तनाव और अनिश्चितता का माहौल गांव में कितना गहरा है, इसका सबसे दुखद प्रमाण 65 वर्षीय गुरमीत कौर की मृत्यु के रूप में सामने आया। महेंद्र सिंह की पत्नी गुरमीत कौर को भी 15 मई को गांव खाली करने का नोटिस मिला था। ग्रामीणों के अनुसार, नोटिस मिलने के बाद से ही वह अत्यधिक तनाव और मानसिक परेशानी में थीं। अपने घर और जमीन के छिन जाने का डर उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रहा था। रविवार 18 मई की अलसुबह, लगभग 3 बजे, गुरमीत कौर को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई।

इस घटना ने गांव के लोगों के गुस्से और हताशा को और भड़का दिया है। उनका मानना है कि गुरमीत कौर की मौत के लिए सीधे तौर पर एएसआई का नोटिस और उससे उत्पन्न तनाव जिम्मेदार है। रविवार को ही ग्रामीणों ने भारी मन से गुरमीत कौर का अंतिम संस्कार किया। यह मौत पोलड़ गांव के संघर्ष में एक मानवीय त्रासदी का प्रतीक बन गई है, जो आंकड़ों और कानूनी दांव-पेंचों से परे, विस्थापन के मानवीय पहलू को उजागर करती है।

राजनीतिक शरण और न्याय की गुहार

 

अपने घरों को बचाने और गुरमीत कौर की मौत से आहत ग्रामीणों ने अब राजनीतिक हस्तक्षेप की गुहार लगाई है। गांव के लोग इकट्ठे होकर गुहला के स्थानीय विधायक देवेंद्र हंस के पास पहुंचे और उनसे इस कार्रवाई को तत्काल रुकवाने तथा उनकी जमीनों को बचाने की मांग की। ग्रामीणों को उम्मीद है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि उनकी आवाज सरकार और संबंधित अधिकारियों तक पहुंचाएंगे और उन्हें इस संकट से उबारने में मदद करेंगे। इसके अतिरिक्त, कानूनी सलाह लेकर अदालत में एएसआई के आदेश को चुनौती देने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है।

विरासत और विस्थापन का द्वंद्व

 

पोलड़ गांव का मामला पुरातात्विक धरोहर के संरक्षण और मानवीय अधिकारों, विशेष रूप से आवास और आजीविका के अधिकार, के बीच एक जटिल और संवेदनशील द्वंद्व को प्रस्तुत करता है। निस्संदेह, देश की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत की खोज और संरक्षण महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमारे अतीत को समझने और हमारी पहचान को समृद्ध करने में मदद करता है। एएसआई अपने वैधानिक दायित्वों का निर्वहन कर रहा है।

लेकिन, इस प्रक्रिया में यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जीवित समुदायों के अधिकारों का हनन न हो और उन्हें अमानवीय परिस्थितियों का सामना न करना पड़े। कुछ बुनियादी प्रश्न उठते हैं:

क्या पुरातात्विक महत्व की पुष्टि के लिए कम विध्वंसक तरीके जैसे कि जियोफिजिकल सर्वे या लक्षित छोटी खुदाइयां, पहले नहीं अपनाई जा सकतीं?
यदि विस्थापन अपरिहार्य है, तो क्या प्रभावित परिवारों के लिए उचित मुआवजे, संतोषजनक पुनर्वास और आजीविका के वैकल्पिक साधनों की व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर नहीं की जानी चाहिए, इससे पहले कि उन्हें अपने घरों से बेदखल किया जाए?
क्या स्थानीय समुदाय को विश्वास में लेने और उनके भय और चिंताओं का समाधान करने के लिए एक पारदर्शी और संवाद आधारित प्रक्रिया नहीं अपनाई जानी चाहिए?
विकास और विरासत संरक्षण की बड़ी योजनाओं में अक्सर सबसे कमजोर और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सबसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है। पोलड़ के मामले में भी यही होता दिख रहा है। यह आवश्यक है कि अधिकारी मानवीय दृष्टिकोण अपनाएं और ऐसे समाधान खोजें जो पुरातात्विक लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए प्रभावित लोगों के प्रति न्यायपूर्ण और संवेदनशील हों।

अनिश्चित भविष्य और अनुत्तरित प्रश्न

 

कैथल के पोलड़ गांव की कहानी आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां उसका पौराणिक अतीत उसके वर्तमान पर भारी पड़ रहा है। २0६ परिवार अपने सिर पर मंडरा रहे बेदखली के खतरे के साये में जी रहे हैं, एक वृद्धा की मौत ने उनके डर को और गहरा कर दिया है। एएसआई अपनी पुरातात्विक खोज के लिए प्रतिबद्ध है, तो ग्रामीण अपने घरों और अपनी जमीन से जुड़े रहने के लिए संघर्षरत हैं।

यह मामला केवल पोलड़ गांव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक नीतिगत प्रश्न उठाता है कि कैसे राष्ट्र अपनी विरासत को सहेजते हुए अपने नागरिकों के वर्तमान और भविष्य को भी सुरक्षित रख सकता है। क्या रावण की कथित जन्मस्थली की खोज में एक पूरे जीवित गांव को उजाड़ देना न्यायसंगत है, खासकर तब जब पिछली खुदाइयों में कुछ हासिल नहीं हुआ और पुनर्वास की कोई स्पष्ट योजना नहीं है? पोलड़ के ग्रामीणों का भविष्य अनिश्चित है, और उनके मन में कई अनुत्तरित प्रश्न हैं। उनका संघर्ष न केवल उनके अपने अस्तित्व के लिए है, बल्कि यह उस मानवीय गरिमा और न्याय की मांग भी है जिसे किसी भी पुरातात्विक या विकास परियोजना की वेदी पर बलिदान नहीं किया जाना चाहिए। आने वाला समय ही बताएगा कि पोलड़ की विरासत का संरक्षण होता है या वहां बसने वाली जिंदगियों का, या फिर कोई ऐसा मध्य मार्ग निकलता है जो दोनों का सम्मान कर सके।

 

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