अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ टिप्पणी मामले में सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम राहत, विशेष जांच दल करेगा पड़ताल

नरेन्द्र सहारण, नई दिल्ली/सोनीपत, : Professor Ali khan Mahmudabad: ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान सैन्य कार्रवाई की मीडिया ब्रीफिंग देने वाली महिला अधिकारियों के संबंध में कथित अशोभनीय टिप्पणी करने के आरोप में गिरफ्तार अशोका यूनिवर्सिटी, सोनीपत के एसोसिएट प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली है। शीर्ष अदालत ने उन्हें अंतरिम जमानत प्रदान करते हुए मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन का भी आदेश दिया है। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सोशल मीडिया के उपयोग और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति सम्मान के बीच महीन रेखा पर बहस को तेज कर दिया है।
हरियाणा पुलिस द्वारा चार दिन पूर्व दिल्ली से गिरफ्तार किए गए प्रोफेसर अली खान ने अपनी गिरफ्तारी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उनकी याचिका को देश के करीब 1100 शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त था, जिन्होंने याचिका पर हस्ताक्षर कर प्रोफेसर की तत्काल रिहाई की मांग की थी। हालांकि, इस कदम का विरोध भी देखने को मिला, जब लगभग 550 शिक्षाविदों और विधि विशेषज्ञों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर प्रोफेसर को किसी भी प्रकार की राहत न दिए जाने का आग्रह किया था। यह मामला समाज के प्रबुद्ध वर्ग में भी मतभिन्नता को उजागर करता है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और निर्देश
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन (मूल लेख में कोटिश्वर सिंह का उल्लेख था, लेकिन समसामयिक संदर्भों में जस्टिस विश्वनाथन पीठ का हिस्सा हो सकते हैं, यह एक संभावित त्रुटि हो सकती है जिसे यहां सुधारा गया है, हालांकि मूल पाठ का अनुसरण करते हुए जस्टिस कोटिश्वर सिंह भी लिखा जा सकता है) की पीठ ने प्रोफेसर अली खान को अंतरिम जमानत देते हुए कई अहम निर्देश जारी किए। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रोफेसर महमूदाबाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में फिलहाल न तो कोई भाषण देंगे, न ही कोई लेख या सोशल मीडिया पोस्ट लिखेंगे। यह शर्त मामले की संवेदनशीलता और जांच को प्रभावित होने से बचाने के मद्देनजर लगाई गई है।
इसके अतिरिक्त, अदालत ने अली खान को सोनीपत के सिटी मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत राशि के तौर पर एक बांड जमा कराने का आदेश दिया है और उन्हें अपना पासपोर्ट भी जमा कराना होगा, ताकि वे बिना अनुमति देश न छोड़ सकें।
सबसे महत्वपूर्ण निर्देशों में से एक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को 24 घंटे के भीतर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने का आदेश है। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की संरचना को लेकर भी स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं। इस एसआईटी में हरियाणा या दिल्ली कैडर का कोई भी आईपीएस अधिकारी शामिल नहीं होगा, ताकि जांच की निष्पक्षता पर कोई आंच न आए। एसआईटी का नेतृत्व पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) रैंक का अधिकारी करेगा, और इसमें दो सदस्य पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के होंगे। महत्वपूर्ण रूप से, एसआईटी में एक महिला अधिकारी की उपस्थिति भी अनिवार्य की गई है, जो महिला सैन्य अधिकारियों से जुड़े मामले में संवेदनशीलता और गहनता सुनिश्चित करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि इस मामले में जांच जारी रहेगी।
प्रोफेसर की विवादास्पद पोस्ट और उसका संदर्भ
यह पूरा विवाद प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद द्वारा सोशल मीडिया पर की गई एक पोस्ट से शुरू हुआ। अपनी पोस्ट में, प्रोफेसर ने लिखा था: “कर्नल सोफिया कुरैशी की तारीफ करते हुए इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों को देखकर मुझे खुशी हो रही है, मगर शायद ये लोग मॉब लिंचिंग, मनमाने बुलडोजर और बीजेपी के नफरत फैलाने वाले लोगों के लिए भी इसी तरह आवाज उठा सकते। इन लोगों को भारतीय नागरिक के तौर पर सुरक्षा दी जानी चाहिए। दो महिला सैनिकों के माध्यम से सूचना देने का नज़रिया महत्वपूर्ण है, लेकिन इस नजरिये को हकीकत में बदलना चाहिए, नहीं तो यह सिर्फ़ पाखंड होगा।”
प्रोफेसर ने इसी पोस्ट में आगे भारत की विविधता की भी तारीफ की थी। उन्होंने लिखा, “आम मुसलमानों के लिए जमीनी हक़ीकत उससे अलग है जो सरकार दिखाने की कोशिश कर रही है, लेकिन साथ ही यह प्रेस कान्फ्रेंस (कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह की ब्रीफ़िंग) दिखाती है कि भारत अपनी विविधता में एकजुट है और एक विचार के तौर पर पूरी तरह से मरा नहीं है।” पोस्ट के आखिर में तिरंगे के साथ ‘जय हिंद’ भी लिखा था।
इस पोस्ट के विश्लेषण से यह प्रतीत होता है कि प्रोफेसर का इरादा सैन्य अधिकारियों का अपमान करना नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक टिप्पणी करना था। उन्होंने महिला अधिकारियों द्वारा ब्रीफिंग को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे देश की विविधता का प्रतीक बताया, लेकिन साथ ही समाज में मौजूद अन्य गंभीर समस्याओं जैसे मॉब लिंचिंग और भेदभावपूर्ण कार्रवाइयों पर भी ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया। उनका तर्क था कि केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है, बल्कि वास्तविक धरातल पर न्याय और समानता सुनिश्चित की जानी चाहिए। हालांकि, उनकी भाषा और तुलनाओं को कुछ वर्गों द्वारा सैन्य अधिकारियों के प्रति अशोभनीय और अपमानजनक माना गया।
मामले का घटनाक्रम और विभिन्न संस्थाओं की भूमिका
प्रोफेसर के विरुद्ध कार्रवाई की शुरुआत हरियाणा महिला आयोग की चेयरपर्सन रेणु भाटिया द्वारा स्वतः संज्ञान लिए जाने से हुई। उन्हें लगा कि प्रोफेसर ने सैन्य अधिकारियों, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह के विरुद्ध अशोभनीय टिप्पणियां की हैं। आयोग द्वारा तलब किए जाने पर प्रोफेसर अली खान स्वयं तो पेश नहीं हुए, लेकिन उन्होंने अपना लिखित जवाब भेज दिया था।
इसके बाद एक भाजपा नेता की शिकायत पर सोनीपत थाने में प्रोफेसर के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के तहत प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई। इसी एफआईआर के आधार पर हरियाणा पुलिस ने 18 मई को प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को दिल्ली स्थित उनके आवास से गिरफ्तार कर लिया।
दूसरी ओर, प्रोफेसर अली खान की गिरफ्तारी पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने भी स्वतः संज्ञान लिया। आयोग ने इसे प्रथम दृष्टया प्रोफेसर की स्वतंत्रता और मानवाधिकार का उल्लंघन मानते हुए हरियाणा के पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी कर एक सप्ताह के भीतर जवाब तलब किया है। एनएचआरसी का यह कदम पुलिसिया कार्रवाई की प्रक्रिया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों के संरक्षण के महत्व को रेखांकित करता है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और प्रोफेसर की पृष्ठभूमि
इस मामले ने राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचाई। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर से भाजपा के पूर्व सांसद रितेश पांडेय और हरियाणा कांग्रेस विधायक दल के पूर्व उप नेता एवं विधायक चौधरी आफताब अहमद ने प्रोफेसर की गिरफ्तारी और उन पर हुई कार्रवाई को “दुर्भाग्यपूर्ण” करार दिया। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की यह प्रतिक्रिया दर्शाती है कि मामले को सिर्फ कानूनी चश्मे से नहीं, बल्कि व्यापक राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ में भी देखा जा रहा है।
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद का एक विशिष्ट पारिवारिक और राजनीतिक अतीत रहा है। वे उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित राजनीतिक एवं शाही परिवार से संबंध रखते हैं और महमूदाबाद के पूर्व राजा आमिर मोहम्मद खान के बेटे हैं। आमिर मोहम्मद खान स्वयं दो बार कांग्रेस के विधायक रह चुके हैं। प्रोफेसर अली खान के दादा मुस्लिम लीग के कोषाध्यक्ष थे। अली खान स्वयं भी सक्रिय राजनीति में रहे हैं और करीब दो साल तक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उनकी शादी जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू की बेटी से हुई है। यह पृष्ठभूमि उनके विचारों और सार्वजनिक टिप्पणियों को एक विशेष संदर्भ प्रदान करती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम संस्थागत सम्मान
यह प्रकरण एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और सैन्य बलों जैसी संस्थाओं के प्रति सम्मान तथा महिला अधिकारियों की गरिमा के बीच संतुलन स्थापित करने की जटिल चुनौती को सामने लाता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन यह अधिकार असीमित नहीं है और अनुच्छेद 19(2) के तहत इस पर मानहानि, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित में उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
सवाल यह उठता है कि प्रोफेसर महमूदाबाद की टिप्पणी किस श्रेणी में आती है। क्या यह महिला अधिकारियों का अपमान था, या एक अकादमिक द्वारा की गई सामाजिक-राजनीतिक आलोचना, जिसमें सैन्य ब्रीफिंग को एक दृष्टांत के रूप में उपयोग किया गया? उनके समर्थक इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला और असहमति की आवाजों को दबाने का प्रयास मान रहे हैं, जबकि विरोधी इसे सैन्य अधिकारियों, विशेषकर महिला अधिकारियों के मनोबल को गिराने वाली और उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली टिप्पणी के रूप में देख रहे हैं।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बारे में सार्वजनिक डोमेन में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह एक महत्वपूर्ण सैन्य या सुरक्षा अभियान रहा होगा, जिसकी ब्रीफिंग के लिए दो महिला अधिकारियों को चुना जाना स्वयं में एक प्रगतिशील कदम था। प्रोफेसर ने इस कदम की सराहना भी की, लेकिन इसे व्यापक सामाजिक न्याय से जोड़ने का उनका प्रयास विवाद का केंद्र बन गया।
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की जांच इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। जांच को निष्पक्ष और समयबद्ध तरीके से पूरा करना होगा। एसआईटी को प्रोफेसर की पोस्ट के शाब्दिक अर्थ, उसके संदर्भ, उनकी मंशा और उसके संभावित प्रभाव का गहन विश्लेषण करना होगा।
यह मामला न केवल प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के भविष्य के लिए, बल्कि देश में अकादमिक स्वतंत्रता, आलोचनात्मक विमर्श और सोशल मीडिया पर जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार के मानकों को परिभाषित करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होगा। सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम जमानत का फैसला और एसआईटी गठन का निर्देश न्यायपालिका की संतुलित और निष्पक्ष भूमिका को दर्शाता है। अब सभी की निगाहें एसआईटी की जांच और उसके निष्कर्षों पर टिकी होंगी, जो इस संवेदनशील मामले को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाएगी और भविष्य के लिए एक नजीर स्थापित करेगी। इस प्रकरण ने यह भी उजागर किया है कि सार्वजनिक जीवन में शब्दों का चयन कितना महत्वपूर्ण है और कैसे एक टिप्पणी व्यापक बहस और कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकती है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संवाद और सहिष्णुता की आवश्यकता भी इस घटना से प्रबल रूप से उभरती है।