जज ही हो गए जबरन रिटायर, रिश्तेदारों के नाम पर खरीदी थी जमीन; पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने लिया एक्शन

नरेन्‍द्र सहारण, चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने पूर्व जिला जज वेदपाल गुप्ता को अनिवार्य सेवानिवृत्ति देने के सरकार के फैसले को सही ठहराया है। यह निर्णय इस मामले में आई जांच का परिणाम है जिसमें गुप्ता पर 1987 में न्यायिक सेवा में शामिल होने के बाद भ्रष्ट तरीकों से संपत्तियों के अर्जन का आरोप लगाया गया था। गुप्ता ने जब इस निर्णय को चुनौती दी, तो अदालत ने उनके विरुद्ध की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई को उचित बताया।

वित्तीय लेनदेन की वैधता की जांच

उच्च न्यायालय की खंडपीठ जिसमें चीफ जस्टिस शील नागु और जस्टिस अनिल खेतरपाल शामिल थे ने स्पष्ट किया कि भले ही संपत्ति खरीदने, बेचने या स्थानांतरित करने के लिए प्रशासनिक अनुमति प्राप्त कर ली गई हो, फिर भी अनुशासनात्मक प्राधिकरण किसी कर्मचारी द्वारा किए गए वित्तीय लेनदेन की वैधता की जांच कर सकती है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि सरकारी कर्मचारी को कर्मचारी आचरण नियम-1965 के अनुसार, निर्धारित प्राधिकरण की अनुमति के बिना किसी भी अचल संपत्ति को अर्जित या हस्तांतरित करने की अनुमति नहीं है।

अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश

मामले की गहराई की बात करें तो 2020 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने वेदपाल गुप्ता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की थी। इसके बाद उन्हें अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया गया। गुप्ता ने 2021 में इस फैसले को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन अदालत ने उनके तर्कों को अस्वीकार कर दिया।

रिश्तेदारों के नाम पर कई संपत्तियां खरीदीं

गुप्ता पर लगाए गए आरोपों में सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने गुरुग्राम, फरीदाबाद और पंचकूला में अपने रिश्तेदारों के नाम पर कई संपत्तियां खरीदीं। जब वे न्यायिक सेवा में शामिल हुए थे तब उनके पास केवल गोहाना में एक छोटे आवासीय संपत्ति का आधा हिस्सा था। जांच के दौरान यह सामने आया कि 1998 में गुप्ता की सास, चमेली देवी ने एक संपत्ति खरीदी और छह महीने के भीतर इसे अपनी बेटी (गुप्ता की पत्नी) के नाम कर दिया। जब उनसे आयकर रिकार्ड प्रस्तुत करने के लिए कहा गया, तो वे ऐसा करने में असफल रहे।

संपत्ति के विवरण में भारी विसंगतियां

अदालत ने पाया कि उनकी सास ने अपनी अन्य चार बेटियों को कोई संपत्ति नहीं दी, जबकि गुप्ता की पत्नी को एक बहुमूल्य संपत्ति दी गई। इसी तरह उनके पिता द्वारा पंचकूला में खरीदी गई संपत्ति के मामले में भी अनियमितताएं पाई गईं। जांच में यह पाया गया कि उनके पिता के पास वह धन नहीं था, जिसकी आवश्यकता थी ताकि वह उस संपत्ति को खरीद सकें। इसके साथ ही गुप्ता और उनके परिवार की संपत्तियों के आयकर रिकार्ड और नकद संपत्ति के विवरण में भी भारी विसंगतियां पाई गईं।

अदालत ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि अनुशासनात्मक प्राधिकरण द्वारा यह निर्णय लिया गया था, जिसमें कर्मचारियों के आचरण से संबंधित नियमों का उल्लंघन करने वाले मामलों में दखल का कोई आधार नहीं है। न्यायालय ने साफ तौर पर कहा कि गुप्ता की याचिका को खारिज किया जाता है।

भूमि अधिग्रहण मामलों में भी अनियमितता

वेदपाल गुप्ता पर भूमि अधिग्रहण मामलों में भी अनियमितताओं का आरोप लगाया गया था। डिजिटलीकरण के दौर में यह स्पष्ट हो गया कि उन्होंने भूमि अधिग्रहण के मुआवजे के निर्धारण में जानबूझकर अधिक दरें तय कीं, जिस कारण सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ। इसके अतिरिक्त, गुप्ता ने कुछ मामलों में अपने रिश्तेदारों और परिचितों को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों का उल्लंघन करने का आरोप भी स्वीकार किया।

पद का दुरुपयोग

यह मामला न केवल न्यायिक सेवा की गरिमा का सवाल है, बल्कि यह बताता है कि कैसे कुछ लोग अपने पद के दुरुपयोग करते हुए प्रत्यक्ष फल का लाभ उठा सकते हैं। अदालत ने इस प्रकार के मामलों में कठोरता से निपटने की आवश्यकता पर जोर दिया, ताकि न्यायपालिका की विश्वासनीयता को बनाए रखा जा सके। अधिकारियों की अनुमति लेकर संपत्तियों के लेन-देन के मामले में सख्त निगरानी की जानी चाहिए और नियमों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।

अनियमितता या भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं

समाज में विश्वास बनाने तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक है कि जितनी जल्दी संभव हो, उन लोगों को दंडित किया जाए जो सरकारी सेवा में रहते हुए भी नैतिकता और कानून का पालन नहीं करते। वेदपाल गुप्ता के मामले से यह स्पष्ट होता है कि न केवल उन्हें दंडित किया गया है, बल्कि यह एक संदेश भी है कि न्यायिक प्रणाली में किसी भी प्रकार की अनियमितता या भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

कानून सबके लिए बराबर

इस पूरे घटनाक्रम से यह सीख मिलती है कि चाहे कोई भी हो, कानून सबके लिए बराबर है और न्यायपालिका में चलाने के लिए नैतिकता और ईमानदारी का होना अत्यंत आवश्यक है। यह निर्णय न केवल एक व्यक्ति के विरुद्ध है, बल्कि यह एक प्रणाली के लिए एक मजबूत संदेश है कि भ्रष्टाचार की किसी भी गतिविधि का परिणाम गंभीर हो सकता है।

 

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